अनमने ढंग से राजनीति करते रहे और विरोधियों द्वारा 'पप्पू' के रूप में प्रचारित राहुल गांधी को देश का एक तबका धीरे धीरे थोड़ी गंभीरता से लेने लगा है। मानने लगा है कि वह थोड़ा 'बकलेल' तो है, पर अन्य बहुतेरे नेताओं जैसा काइयां नही है। ऐसे में बीते दिनों अपने एक बयान से राहुल गांधी ने अपनी इस छवि का नुकसान कर लिया है।
राहुल गांधी का यह कहना कि '84 के सिख विरोधी दंगों में कांग्रेस की कोई भूमिका नहीं थी, झूठ; और सच को नकारने का भोंडा प्रयास है।
वैसा ही, जैसा 2002 के गुजरात दंगों में अपनी लिप्तता से भाजपा का इनकार करना।
'84 में हुए दंगे, या सिखों के एकतरफा संहार शुरू होने पर तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी का इस आशय का बयान तो इतिहास में दर्ज है कि जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है, तो धरती थोड़ी बहुत हिलती ही है।
जैसे गुजरात के दंगों पर राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी (मौजूदा प्रधानमंत्री) का यह बयान कि ‘हर क्रिया (संकेत गोधरा हादसे की ओर था) की विपरीत प्रतिक्रिया होती ही है।’
हालांकि माना जाता है कि कांग्रेस ने उन दंगों के लिए देश और सिख समुदाय से माफी मांग ली है। प्रधानमंत्री रहते डॉ मनमोहन सिंह ने क्षमा याचना की भी थी। लेकिन राहुल गांधी का यह बयान बताता है कि कांग्रेस ने माफी मांगी भी, तो ऊपरी मन से। अब तक कांग्रेस को उस अपराध बोध से उबर जाना चाहिए था। बेशक वह भी चुनाव जीतने के लिए जाति और धर्म की संकीर्णता का इस्तेमाल करती रही है। फिर भी उसकी पहचान किसी धार्मिक या जातीय समुदाय के विरोधी की नहीं बनी है, जैसी भाजपा की है। सिर्फ गुजरात दंगों के कारण नहीं, बल्कि यही उसकी मूल पहचान है। और इससे उसे कोई परेशानी भी नहीं होती। उसके बड़े नेता मंच से कुछ भी बोलें।
इसलिए उक्त बयान देकर राहुल गांधी ने 'शातिरों' की श्रेणी में पहुंच गये हैं। निश्चय ही दूरगामी दृष्ट से यह उनके खिलाफ ही जायेगा।
गोधरा में मुस्लिम धर्मान्धों ने एक ट्रेन की बोगियों में आग लगा कर 46 हिंदू यात्रियों को जला दिया था, इसलिए उसके बाद पूरे गुजरात में भड़के दंगों को सही मान लिया जाये? साथ में यह भी कि दंगों की शुरुआत मुसलामानों ने की? कमाल यह कि नरेंद्र मोदी को 'राजधर्म' निभाने की बहुप्रचारित नसीहत देने वाले तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी (अब दिवंगत) ने भी अगले ही दिन गोवा में भाजपा के राष्ट्रीय अधिवेशन में बोलते हुए कहा था कि 'गोधरा' नहीं हुआ होता, तो गुजरात में दंगे होते?
'84 और 'गुजरात' का अंतर
गोधरा एक हादसा था। किसी पूर्व नियोजित साजिश का नतीजा नहीं, जैसा नरेंद्र मोदी ने बिना किसी जांच और आधार के कह दिया था, जो किसी जांच में साबित भी नहीं हुआ। उसके बाद हुआ दंगा बेशक ‘हिंदू उन्माद’ का नतीजा था, लेकिन हिंदुओं में वह उन्माद भरा गया, उन्हें उकसाया और भड़काया गया; और इस काम में संघ/भाजपा के लोग लिप्त थे। इसके अलावा सरकार और प्रशासन की भूमिका भी पक्षपातपूर्ण थी।
इस तर्क के आधार पर तो यह भी मान लेना पड़ेगा कि ’84 के दंगों की शुरुआत सिखों ने की थी। क्योंकि इंदिरा गांधी के दो सुरक्षा गार्ड्स द्वारा उनकी हत्या कर दिये जाने की प्रतिक्रिया में ही दंगे भड़के थे। उससे भी पहले खालिस्तानी आतंकवादी कई वर्षों से पंजाब को देश से अलग करने के अपने हिंसक आंदोलन के दौरान चुन चुन कर हिंदुओं की हत्या कर रहे थे।
मेरा मानना है कि '84 और 2002 में दंगा नहीं हुआ था। एक में सिखों का संहार हुआ था; दूसरे मुसलिमों का। ’84 में पूरी तरह एकतरफा। 2002 में लगभग एकतरफा। '84 तो वैसे भी अपवाद था। क्योंकि न तो उसके पहले, न उसके बाद हिंदू- सिख दंगे हुए हैं।
दंगे और हमारी पुलिस
हिंदू- मुसलिम दंगा चाहे जिन कारणों से, कहीं भी हुआ है, उसमें अंतत: तो मुसलिम पक्ष को ही जान-माल की भारी क्षति होती रही है। इसलिए भी कि पुलिस ऐसे मौकों पर 'हिंदू पुलिस' बन जाती है। वह मुसलिमों की हिंसक भीड़ पर तो जम कर लाठी-गोली चलाती है, लेकिन हिंसा हिंदू भीड़ कर रही हो, तो अमूमन आंख फेर लेती है। कई बार तो वह मुसलिमों के साथ दुश्मनों जैसा सलूक करती है; और खुद ही सामान्य मुसलिमों की अकारण हत्या करती है।
ऐसी ही एक लोमहर्षक घटना उप्र में मेरठ के निकट हाशिमपुरा में '87 में हुई थी। तब केंद्र में कांग्रेस सरकार थी, शायद उत्तर प्रदेश में भी। आरोप है कि पीएसी के 19 पुलिसकर्मियों ने 42 मुसलिम युवकों को पकड़ा। सबों की गोली मार कर उनकी लाश पास के नहर में फेंक दी। मामले को दबाने का पूरा प्रयास हुआ।। और आखिरकार तमाम हत्यारे वर्दीधारियों को 'लंबी' सुनवाई के बाद 21 मार्च, 2015 को 'सबूतों के अभाव' में बरी कर दिया गया।
कोर्ट के इस फैसले को यूपी सरकार ने ऊपरी अदालत में चुनौती दी है, मुझे नहीं मालूम।