जुआन रुल्फो की कहानी ‘उनसे बोलो मेरा कत्ल न करें’ अनुवाद : यादवेन्द्र

यह जीवन अमूल्य है। इस जीवन की अहमियत तब समझ आती है जब सामने मौत खड़ी हो। जुवेन्सियो ऐसा ही एक पात्र है जो मौत से बचने के लिए हर संभव प्रयास करता है। अंततः एक दिन उसका सामना मौत से होता है। मैक्सिको के कहानीकार जुआन रुल्फो अपनी कहानी ‘उनसे बोलो मेरा कत्ल न करें’  में जिस बारीकी के साथ इस कथ्य का ताना बाना बुनते हैं वह क्लासिकल लगता है। इस कहानी का अनुवाद किया है जाने माने अनुवादक और रचनाकार यादवेन्द्र ने। तो आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं जुआन रुल्फो की कहानी ‘उनसे बोलो मेरा कत्ल न करें’।     

    

उनसे बोलो मेरा क़त्ल न करें

-जुआन रुल्फो (मेक्सिको, 1917-1986)

उनसे बोलो मेरा क़त्ल न करें, जुस्तिनो ... और उनसे गुजारिश करो ..खुदा के वास्ते मेरी जान बख्श दें। उठो और उनसे बोलो ..प्लीज खुदा के लिए ऐसा कर दो मेरे बच्चे।

मैं ऐसा कैसे कर सकता हूँ ...वो जो सार्जेंट है आपके बारे में एक शब्द भी सुनने को राजी नहीं …

 

चाहे जो करो पर उसको अपनी बात सुना ही डालो.. कोई जुगत लगाओ, चाहे तो हँसी मज़ाक ही करो पर उस तक यह बात पहुँचानी जरुरी है कि मुझमें खौफ़ पैदा करने की उसकी मंशा पूरी हो चुकी ...पर अब मेरी जान बख्श दे ..उसको ये बात बता दो बेटे।

 

पर बात सिर्फ आपके अन्दर खौफ पैदा करने की नहीं है। ...वे सचमुच आपकी जान लेना चाहते हैं। ...ऐसे में मैं उनके आस पास फटकना भी नहीं चाहता।

 

एक बार चले जाओ। ...जाना ही पड़ेगा मेरे बच्चे। ...सिर्फ एक बार और कोशिश कर के देखो।

 

हरगिज नहीं मैं उनके सामने जाने को बिलकुल तैयार नहीं हूँ। ...ऐसी फ़रियाद लेकर मैं गया नहीं कि उनको फ़ौरन समझ आ जाएगा कि मैं आपका ही बेटा हूँ। ...एक बार यह जान लेने पर मेरी जान की भी खैर नहीं, वे मुझे भी गोली से उड़ा सकते हैं। अब तो इसी में सबकी भलाई है कि जो जैसे चल रहा है उसको वैसे ही चलने दिया जाए।

 

 

चले जाओ मेरे बच्चे। ...उनसे फ़रियाद करो कि मेरे ऊपर थोडा सा रहम करें। ...एक बार उनसे कह कर तो देखो।  

 

 

इतनी देर से यह गिड़गिड़ाना सुनते-सुनते जुस्तिनो खीझ चुका था। ...अपने दांत पीसते हुए उसने गर्दन मोड़ कर सख्ती से ना कर दिया। ...और देर तक वैसे ही पिता को घूरता रहा।

 

सार्जेंट से कहो कि वो तुम्हें कर्नल के सामने पेश होने दे। ...फिर कर्नल को मेरी इतनी खासी उम्र के बारे में बताना। ...बोलना एक दुनिया से लगभग खारिज हो चुके बुड्ढे को मार कर उनको क्या हासिल होगा? उसके अन्दर इतनी तो आत्मा ज़रूर होगी। ...इस आत्मा की मुक्ति के लिए वो शायद मेरी जान बख्श दे।        

 

 

जुस्तिनो जो अब तक पत्थरों के एक ढेर पर बैठा हुआ था वहाँ से उठा और जानवरों के बाड़े के दरवाज़े की ओर बढ़ा। ...थोडा आगे बढ़ कर पीछे मुड़ कर बोला : "ठीक है , मैं जा तो रहा हूँ पर उन्होंने यदि मुझे भी गोली मारने की ठान ली तो मेरी बीबी और बच्चों का क्या होगा। ...मेरी पीठ पीछे कौन करेगा उनकी परवरिश?"

 

 

"उनकी परवरिश परमेश्वर खुद ही करेगा जुस्तिनो। ...तुम अब तो वहाँ जाओ और देखो कि मेरी खातिर क्या कर सकते हो? अभी तो उसकी सबसे ज्यादा अहमियत है।"

 

 

भोर होते ही वे उसको ले कर आये। ...धीरे-धीरे उजाला फैलने लगा पर वह वहाँ खम्भे के साथ बँधा हुआ वैसे ही खड़ा रहा -- प्रतीक्षारत। उसको चैन नहीं आ रहा था। - सब्र आ जाये यह सोच कर थोड़ी देर उसने सोने की कोशिश भी की पर नाकाम रहा। उसको भूख भी नहीं लगी थी। --बस उसके दिल में एक ही ख्वाहिश रह-रह कर उठती कि उसको जीने को और कुछ समय मिल जाता। अब जब उसको साफ़-साफ़ दिख रहा था कि वे उसको मारने की पूरी तैय्यारी कर चुके हैं, जिन्दा रहने की उसकी उत्कंठा और बलवती होती जा रही थी जैसे अभी अभी अप्रत्याशित ढंग से जीवनदान प्राप्त कर लेने वाले किसी इंसान की होती है।  

 

 

पर किसको अंदेशा हो सकता था कि इतने सालों पहले संपन्न हुई और लोगों की स्मृतियों के अन्दर कब की दफन हो चुकी घटना इस ढंग से एकदम से सिर उठा लेगी। -- एलिमोस इसकी संभावित वजहें ढूँढने की कोशिश करने लगा। उसको याद आया : उसका पड़ोसी डॉन लूप तेरेरोस -- पुएर्ता दी पिएद्रा का मालिक-- और उसको जान से मारने वाला वह खुद -- जुवेन्सियो नावा ...एकदम से उसको वह पूरी घटना याद आ गयी कि कैसे उसने उसके मवेशियों को अपने विशाल फ़ार्म में चरने से मना कर दिया था।

 

 

शुरू-शुरू में तो उसने कोई झगडा मोल नहीं लिया, वो सुलह सफाई के साथ जीवन जीने वाला इंसान जो था। पर जैसे-जैसे मौसम ने मुँह मोड़ना शुरू किया और अकाल की काली छाया लम्बी होती गयी - उसके ढोर डंगर एक-एक कर के भूख से मरने लगे। पड़ोसी डॉन लूप किसी भी तरह कोई रियायत करने को राजी नहीं था। -हताशा का सारा मंजर देख के उसने अपना आपा खो दिया, डॉन लूप के फार्म की फेन्स में छुप-छुप के बड़ा सा सूराख़ किया और अपने डंगरों को उसने अन्दर धकेल दिया जिससे वे भरपूर चारा खा सकें। डॉन लूप को यह बड़ा नागवार गुजरा और आनन फानन में उसने वहाँ दीवार खड़ी करवा दी। जुवेन्सियो ने फिर से वैसी ही हरकत की -- दो चार दिनों तक रात में फार्म के अन्दर घुसने का चोर रास्ता बनाने और दिन के समय उसको बंद करने का सिलसिला निर्बाध रूप से चलता रहा। जुवेन्सियो के डंगर चोर की तरह दीवार से चिपक कर मौके के इन्तजार में खड़े रहते और -- यहाँ तक कि हरी घास खाने को न भी मिलती तो उसकी गन्ध से उनकी जीवन की उम्मीद बँधी रहती।

 

 

ज़ाहिर है उसमें और डॉन लूप के बीच झगडा बढ़ना ही था। एक दिन ऐसा आया जब डॉन लूप ने उससे कहा कि "कान खोल कर सुन लो जुवेन्सियो, अब तुम्हारा एक भी डंगर मेरे फार्म में मुझे दिखाई पड़ा तो मैं आगे पीछे देखे बगैर उसको सीधा गोली मार दूँगा।"  

 

 

जुवेन्सियो ने फ़ौरन जवाब दिया : "देखो मिस्टर...डॉन लूप ...डंगर अपनी जान बचाने को घास की तलाश में जहाँ भी घुस जाएँ इस पर मेरा क्या वश ...उनको तो खुद की कोई अक्ल नहीं... मेरे डंगरों के साथ यदि तुमने कुछ भी ऐसा वैसा किया तो सोच लेना तुम्हारी भी खैर नहीं.. ।"  

 

 

और एक दिन डॉन लूप ने मेरे एक जवान डंगर को मार ही डाला।

 

 

यह घटना पैंतीस साल पहले के मार्च महीने की है। ... मुझे घटना इसलिए याद है क्योंकि अप्रैल महीने में तो मैं पुलिस की पकड़ से बचने के लिए पहाड़ों में ही भाग गया। जज को मैंने रिश्वत के तौर पर दस दस गायें भी पहुँचायीं पर बात बनी नहीं। ... जेल जाने से बचने के जुगाड़ में मुझे घर तक गिरवी रखना पड़ गया। जो कुछ भी मेरे पास था सब कुछ लुट गया पर देनदारी की छाया ऐसी थी कि छँटने का नाम ही नहीं लेती थी। आखिर में थक हार कर मैं पुश्तैनी गाँव से दूर अपनी एक दूसरी जमीन पर बेटे के साथ रहने आ गया। ... बेटा जब बड़ा हुआ तो मैंने उसकी शादी कर दी। -- इग्नेसिय है मेरी बहू का नाम और उन दोनों के आठ बच्चे हैं। ...इस बात को बीते हुए बहुत लम्बा अरसा गुजर गया और मुझे लग रहा था लोग-बाग उसको कब का भूल चुके हैं  ...पर सच्चाई इससे बिलकुल पलट है।

 

 

 

मैंने तब हिसाब लगाया था कि यदि सौ पेसो खर्च कर दिया जाये तो सारा मामला निबटाया  जा सकता है - डॉन लूप अपने पीछे अपनी बीवी और घुटनों के बल चलने वाली दो औलादों को छोड़ कर मरा था। बीवी भी ज्यादा समय जिन्दा नहीं बची - कहते हैं सदमे ने उसकी भी जान ले ली और लोगों ने नादान बच्चों को आगे की परवरिश के लिए किसी रिश्तेदार के यहाँ पहुँचा दिया - सो पीछे ऐसा कुछ बचा नहीं था जिस से डरने का कोई सबब बने।

 

 

पर गाँव के दूसरे लोग हमेशा इस फिराक में रहे कि गिरफ्तारी का भय दिखा कर मुझसे माल वसूला जा सके -- अक्सर गाँव में मुझे डराने की नीयत से कोई न कोई ऐसी खबर जरुर फैला देता कि पास के कस्बे में कुछ नए और अजनबी लोग डेरा डाले हुए हैं।

 

 

ऐसी कोई बात सुनते ही दिन हो या रात मैं बदहवासी में गाँव छोड़ कर पहाड़ों में भाग खड़ा होता और घने पेड़ों के ऊपर चढ़ कर जो भी मिल जाए कंद मूल खा कर गुजारा करता। कई बार तो रात के घने अन्धकार में भी पीछा करते कुत्तों से बचते बचाते मुझे भागना पड़ता। मेरे पूरे जीवन की यही कहानी रही - एक दो साल की बात नहीं बल्कि मेरा पूरा जीवन ऐसे ही बीता। 

 

 

और अब जब कि उसको ऐसी किसी बात का अंदेशा नहीं था तो अचानक वे लोग उसके निशान ढूंढते चले आये-- उसको भरोसा हो चला था कि लोगों की स्मृति से अब वह घटना पूरी तरह से निकल चुकी है और जीवन के बचे हुए  दिन वह शांति और निश्चिन्तता से गुजार सकेगा... "इतने सालों बाद ही सही पर अब लगता है मैं बुढ़ापे के गिने चुने दिन सुख चैन से गुजार सकूँगा.. वे लोग मुझे अब अपनी मर्जी से अकेला जीवन बसर करने के लिए छोड़ देंगे।"

 

 

 

 

मुश्किल से नसीब हुए सुकून की उसकी उम्मीदें बढ़ गयी थीं सो मौत इस तरह सामने आ खड़ी होगी इसकी उसने कल्पना भी नहीं की थी। -- वह भी  ऐसे समय जब अपनी जान बचाने की खातिर जीवन के सबसे अच्छे दिनों को कभी यहाँ तो कभी वहाँ पहाड़ों की ख़ाक छानते हुए बर्बाद कर चुका था। ...और तब जब रात दिन की परवाह किये बगैर भागते-भागते उसका सारा बदन सिर्फ एक ठठरी सा बचा रह गया था।

 

 

क्या उसने अपनी बीवी को घर छोड़ कर चले जाने नहीं दिया था? जिस दिन उसको खबर हुई कि बीवी उसका घर छोड़ कर चली गयी है उस दिन भी उसने  उसको ढूँढ कर वापस लौटा लाने की कोई कोशिश नहीं की थी। -- किस के साथ, किस दिशा में गयी इसको पता करने के लिए वह गाँव तक जाने का हौसला नहीं जुटा पाया था। बीवी भी वैसे ही चली गयी जैसे उसके जीवन से बहुतेरी अन्य चीजें बिन बताये चली गयीं और वह टुकुर टुकुर ताकता रह गया। बस उसको फ़िकर थी तो अपने जीवन की और उसने उसको बचाए रखने के सिवा जीवन में कुछ और किया ही नहीं। उसने खुद तक उनको कभी पहुँचने नहीं दिया। .. और यह काम बखूबी किया। पर अब ......

 

 

यही कारण था कि वे उसको उसके वर्तमान गाँव से पकड़ कर यहाँ ले आये थे --उसको उन्होंने रस्से से बाँधा बून्धा नहीं बल्कि अपने पीछे-पीछे चलने का हुक्म दिया। अपने खौफ के बंधन से बँधा हुआ अकेला वह चुपचाप उनके पीछे चल रहा था। उनको मालूम था कि इस बूढी काया के भरोसे वह कहीं भाग भी नहीं सकता था --उसकी टाँगें किसी दरख़्त की सूखी हुई टहनी जैसी लग रही थीं और मौत के डर से चेहरा फ़क पड़ा हुआ। उन्होंने उसको बता दिया था कि ले कर कहाँ जा रहे हैं-- मौत के दरवाज़े।  

 

 

तभी उसको उनका असली मकसद पता चला -- सुनते ही उसके पेट में तीखी मरोड़ उठने लगी, पर इस से पहले भी जब जब उसने अपनी मौत को सामने खड़ा देखा उसके पेट में ऐसी ही मरोड़ उठी थी... आँखें विस्तृत खुली की खुली और पूरा मुँह खारे लार से लबालब जिसको गटकने में जान निकलती। उसके पैर पत्थर जैसे मनों भारी हो गए, माथा ऐसा खाली खाली जैसे अन्दर मांस मज्जा कुछ हो ही नहीं.. और दिल था कि बल्लियों उछलने लगा-- लगता था अस्थि पंजर तोड़ कर अभी बाहर निकल आएगा। 

 

 

"नहीं... उसको अपने मन में यह ख्याल कतई बैठने नहीं देना है कि मौत बिलकुल सामने खड़ी है और अब उसको साथ लिए बिना टलने वाली नहीं ...हो सकता है कहीं से उम्मीद की किरण चमक जाए ..हो सकता है वे गलती से उसके पास पहुँच गए हों ..मुमकिन है वे किसी दूसरे जुवेन्सियो नावा की तलाश कर रहे हों और मुझे इसी गफ़लत में पकड़ लिया हो।"

 

 

उन आदमियों के घेरे के बीच वह चुपचाप चल रहा था ..दोनों बाँहें झुकाए हुए। अभी भोर हुई ही थी, उजाला नहीं फूटा था --आसमान में एक भी तारा नहीं दिखाई दे रहा था। मंद मंद हवा - कभी धूल उड़ाती तो कभी माहौल में पेशाब की बदबू बिखेरती हुई।

 

 

 

उसकी आँखें-बरसों की ऐसी भागदौड़ से थोड़ी तिरछी हो गयी ऑंखें-झुकी झुकी नीचे धरती निहार रही थीं। हाँलाकि दिखने लायक उजाला था नहीं। ...यही धरती ..यही मिट्टी ..उसका पूरा जीवन ऐसा ही तो था। इसी मिटटी पर साठ साल का जीवन ..उसने कभी तो इसको मुट्ठी में कस कर भींच लिया तो कभी मुँह में ऐसे ठूँस लिया जैसे बरसों की भूख मिटाने वाला गोश्त का कौर हो। काफी देर तक वह इसका एक एक कोना निहारता रहा जैसे आखिरी बार देख रहा हो। - इस सच का उसे आभास तो था ही कि इसके बाद मौका मिलने की सम्भावना नहीं के बराबर थी। 

 

 

 

इसके बाद कुछ कहने की नीयत से उसने आगे चल रहे आदमियों की ओर देखा। ..उसको लगा उनसे खुद को छोड़ देने की फ़रियाद करे : "बच्चों, मैंने किसी को जीते जी दुःख नहीं पहुँचाया।".. उसने अन्दर से ऐसा कह सकने के लिए साहस जुटाया पर मुँह से एक शब्द भी निकल नहीं पाया। .."थोडा और आगे बढ़ेंगे तो मैं उनसे कहूँगा।" उसने अपने मन को तसल्ली दी। वह उनकी ओर टुकुर-टुकुर ताकता रह गया। - उसको एक बार को यह भी लगा कि वे उसके दोस्त हो सकते हैं पर अगले पल यह भी लगा कि इसकी कोई दरकार नहीं थी ..वे दरअसल उसके दोस्त कहाँ थे, उसको तो यह भी नहीं मालूम था कि उनकी असल पहचान क्या थी। उसके सामने की सचाई यही थी कि वे उसके आगे आगे चल रहे थे और मोड़ों पर दाँये बाँए गरदन घुमाते हुए बढ़ते जा रहे थे।

 

 

 

कल अँधेरा उतरते उतरते उसकी निगाह उन पर पड़ी थी जब क्यारियों में लगे  मक्के के पौधों को रौंदते हुए वे आये थे। आगे बढ़ कर उसने उनको खेतों को रौंदने से रोक भी था पर न उन्होंने उसकी बात को तवज्जो दी न ही रुके। 

 

 

 

यह बात सही है कि उसने उनको समय पर देख लिया था। --वैसे उसकी किस्मत अच्छी रही है कि जीवन में अक्सर उसने चीजों को सही समय पर ही देखा। यह भी तो हो सकता था कि वह कहीं आस पास गया हुआ होता और उसकी गैरहाजिरी में वे आते। -उसको वहाँ मौजूद न देख के वापिस लौट जाते। .. और दुबारा अचानक धावा बोल देते। उसको ध्यान आया कि अभी बरसात का समय है। --बरसात का इन्तजार लम्बा खींचता जा रहा है और मक्के की फसल बरबाद होने लगी है। ..थोड़ी और देर हुई तो चारों ओर  अकाल फ़ैल जायेगा। 

 

 

उसको महसूस होने लगा था कि गड़बड़ हो गयी है। -- उसका उन आदमियों के सामने निकल पड़ना वैसे ही था जैसे भागते हुए कोई किसी ऐसे गड्ढे में गिर जाए जिस से आजीवन मुक्ति संभव नहीं।

 

 

 

अब तो वह उनके साथ साथ सिर झुकाए चलने को अभिशप्त था। ..समझ नहीं पा रहा था कि छोड़ देने के लिए उनसे कैसे कहे। उसको बड़ी जुगत के बाद भी उनके चेहरे नहीं दिखाई पड़ रहे थे। ..दिख रहे थे तो सिर्फ उनके बदन जो एक बार को उसकी ओर बढते तो दूसरे पल उलटी दिशा में। इसीलिए जब उसने हिम्मत जुटा कर उनसे उनसे बातचीत शुरू की तो उसको पक्का भरोसा नहीं था कि आवाज उन तक पहुँच भी रही है या नहीं।

 

 

 

 

 

"मैंने कभी किसी को चोट नहीं पहुँचाई।" उसने कहा तो पर कहीं से भी उसके कहने की प्रतिक्रिया नहीं हुई। ..सब कुछ यथावत वैसे ही चलता रहा जैसे कहने के पहले चल रहा था। ...यहाँ तक कि उनमें से किसी ने उसकी ओर गर्दन मोड़ कर देखने की जहमत भी नहीं उठायी। उनके अचरजपूर्ण बर्ताव को देख कर ऐसा लगता था जैसे वे नींद में ही चल रहे हों।

 

 

मंजर देख कर उसकी समझ में आ गया कि उसके कहने की कोई वकत नहीं। ..यदि किस्मत उस पर मेहरबान होगी तो राहत की उम्मीद यहाँ से नहीं कहीं और से दाखिल होगी। हताशा में उसने अपनी बाँहें फिर से लटका लीं और गाँव के शुरू में बने घरों की ओर बढ़ने लगा। --अँधेरा अब भी उनको अपने आगोश में समेटे हुए था।

 

 

"कर्नल, ये ही है वो आदमी।"

 

 

वे एक घर के संकरे से दरवाज़े के सामने पहुँच कर  हो गए। ..उसने बड़े अदब से अपना हैट हाथ में थामा हुआ था और लगा जैसे किसी के निकल कर बाहर आने की उम्मीद कर रहा हो पर अन्दर से सिर्फ आवाज आयी : "कौन सा आदमी?"  

 

 

"कर्नल,  आपने जिस आदमी को लेकर आने का हमें हुकुम दिया था ..वही आदमी।"  

"उस से पूछो वो कभी अलीमा गाँव में रहा है?" अन्दर से दुबारा आवाज आयी।

"अरे.. सुनो.. तुम कभी अलीमा गाँव में रहते थे?" सार्जेंट ने कड़कते स्वर में पूछा।

"हाँ ..कर्नल को बता दो मैं उसी गाँव का रहने वाला हूँ। ...थोड़े सालों पहले तक मैं वहीँ रहा करता था।"

"उससे पूछो कि गुआदालूप तेरेरोस का नाम सुना है?"

"साहब पूछ रहे हैं तुमने गुआदालूप तेरेरोस का नाम सुना है?"

"डॉन लूप? हाँ साहब, खूब जानता हूँ ...पर उसको गुजरे हुए तो कई साल बीत  गए।" 

यह सुनते ही अन्दर से आती आवाज के तेवर बिलकुल बदल गए : "मुझे मालूम है उनके गुजरे कई साल बीत गए।"

 

 

इसके बाद भी अन्दर से आती हुई आवाज देर तक ऐसे जारी रही जैसे दीवार के पार किसी से बातचीत हो रही हो। 

 

                  

"गुआदालूप तेरेरोस मेरे पिता थे। जब मैं बड़ा हुआ और उनके बारे में जाने की उत्सुकता हुई तो पता चला कि उनको गुजरे एक अरसा हो गया। कितना मुश्किल होता है जब आप जिस विशाल स्तम्भ को थाम कर बड़े होने का हौसला करते हैं, पता चले कि वह तो बरसों पहले ही वहाँ से उखड़ चुका है। हमारे साथ ऐसा ही हुआ।"

 

 

"बाद में मुझे मालूम हुआ कि पहले तो उनको दौड़ा दौड़ा कर भाले से गोदा गया, उसके बाद सीधे-सीधे पेट में खंजर घुसेड़ दिया गया। लोगों ने मुझे बताया कि वे ऊँची-ऊँची घास के सुनसान इलाके में दो दिनों तक तड़पते रहे और जब राहगीरों की नजर उन पर पड़ी तो गिड़गिडाते हुए उन्होंने उनसे सिर्फ यही गुहार लगाई कि अब उनकी जीवनलीला तो समाप्त हो गयी पर उनके परिवार की परवरिश ठीक से की जाए।" 

 

 

"जैसे-जैसे समय बीतता जाता है आप यह सब भूलते जाते हैं। -- आप का दिल चाहता भी यही है। पर आप जो शिद्दत से चाह कर भी भूल नहीं पाते वो है यह जानना कि जिसने वो सब किया था वो अब भी जिन्दा है और इस मुग़ालते में है कि उसका जीवन तो अजर अमर है। मैं उस आदमी को कैसे माफ़ कर दूँ। --हाँलाकि उसको मैं जानता तक नहीं। --पर एक बार जब मुझे उसके ठिकाने का पता चल गया तो उसको अब जिन्दा छोड़ देने का सवाल ही नहीं पैदा होता। ...मैं उसको जिन्दा घूमते फिरते देख नहीं सकता। .. ऐसे आदमी को तो धरती पर जन्म लेने का भी इख़्तियार नहीं होना चाहिए।"

 

 

 

यहाँ से.. बाहर तक उसकी आवाज एकदम साफ़ सुनाई दे रही थी। इसके बाद उसने कड़क आवाज में फ़रमान सुनाया : "इस आदमी को बाहर ले जाओ, थोड़ी देर के लिए रस्से से बाँध कर रखो जिससे इसको मालूम हो तकलीफ क्या होती है.. इसके बाद गोली मार दो।"

 

 

 

"मेरी ओर देखो, कर्नल" वह गिड़गिडाया.. मिन्नतें कीं... "अब मैं किसी काबिल तो रहा नहीं... और कितने दिन जिन्दा रहूँगा। .. बुढापे से घिर कर देखते-देखते खुद ही मर जाऊँगा। .. अब मुझे मार कर तुम्हें क्या मिलेगा। ... मुझ पर रहम करो।"

 

 

"इस बुड्ढे को यहाँ से बाहर ले जाओ।" अन्दर से आवाज आयी। 

 

 

"जितना मुझे भुगतना था उतना मैं भुगत चुका हूँ, कर्नल.. बल्कि अपने गुनाह से कई गुना ज्यादा भी... उन लोगों ने मेरा सब कुछ लूट लिया.. कोई भी ऐसी सजा नहीं बची जो उन्होंने मुझे न दी हो.. अपने जीवन के चालीस साल मैंने छुप छुप कर ऐसे बिता दिए जैसे कोढ़ी लोगों की निगाह से छुपता फिरता है... मुझे हमेशा यह डर सताता रहा कि मैं उनकी नज़रों के सामने पड़ा नही कि वे मार डालेंगे.. मैं ऐसी मौत नहीं मरना चाहता कर्नल... कम से कम इतना करो कि ख़ुदा को यह मौका दो कि माफ़ करने लायक समझे तो मुझे माफ़ कर सके.. मेरी जान मत लो.. उनसे बोलो वे मेरा क़त्ल न करें।"

 

 

वह घर के बाहर था ...लगता था उन्होंने उसकी भरपूर पिटाई की है... वे अपने हैट हवा में लहरा रहे थे और जोर-जोर से उसपर चीख चिल्ला रहे थे।

 

तभी अन्दर से आवाज आयी : "उसके हाथ पाँव रस्से से बांध दो ..और पीने के लिए कुछ ऐसा दो जिस से गोलियों की चोट कम महसूस हो।"  

 

 

अंत में, अब उसका शरीर जमीन पर खामोश पड़ा हुआ है। ..खम्भे की जड़ के पास लुंज पुंज और निश्चेष्ट। उसका बेटा जुस्तिनो पास आया.. फिर पीठ दिखा कर चला गया.. जुस्तिनो फिर आया... जुस्तिनो फिर गया।

 

 

उसने लाश को एक खच्चर की पीठ पर रख दिया।... रस्से से कस कर बाँध दिया जिस से चलते हुए नीचे न गिर जाए। ... उसके सिर के आस पास उसने एक बोरा लपेट डाला जिससे देखने में भद्दा न लगे। .. खच्चर को उसने तेज तेज चाबुक मारा, घर पहुँच कर जल्दी सारा तामझाम जल्दी निबटाना जो था। 

 

 

"तुम्हारी बहू और पोते पोतियों को तुम्हारी कमी बहुत खलेगी।" रास्ते में चलते हुए बेटा मृत पिता से कहता जा रहा था। .."वे तुम्हारा चेहरा देख कर एकबारगी पहचान ही नहीं पायेंगे। ...तुम्हारे चेहरे पर इतने छेद हो गए हैं कि उनको लगेगा जंगल में जानवरों ने खा लिया है। .. बाप रे, कितनी गोलियाँ मारी हैं उन्होंने तुमको बापू।"

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