शालडूंगरी का सपना घायल भर हुआ है, लड़ाई अभी बाकी है...

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:: न्‍यूज मेल डेस्‍क ::

लेखक मनोज भक्त पत्रकार रहे हैं, इसलिए स्वाभाविक ही मीडिया के अंदर के हालात, पत्रकारों व संपादकों के चरित्र, उनकी आपसी प्रतिस्पर्धा और राजनीतिक पक्षधरता आदि का उपन्यास में बहुत जीवंत चित्रण हुआ है. राजनीति- पक्ष और विपक्ष- में चलने वाली गोलबंदी और साजिशों का रोचक ढंग से खुलासा भी बखूबी हुआ है. 
झारखंड के भूगोल, ग्रामीण इलाकों की बनावट, इसकी भिन्न जनजातियों के जीवन और अंदाज, उनकी बोली आदि पर बारीक पकड़ उपन्यास को यथार्थ के धरातल पर खड़ा करता है. टाटा/ जमशेदपुर शहर की संरचना और वहां के ट्रेड यूनियन नेताओं के अंदाज की भी खासी जानकारी लेखक को है, यह साफ दिखता है.

एक उपेक्षित पड़े मैदान, जहां लड़कियां  हॉकी की प्रैक्टिस करती हैं, पर कब्ज़ा करने की कोशिश से जूझती लड़कियों के संघर्ष से ‘अर्था’ नामक कंपनी के लिए बड़े पैमाने पर भूमि अधिग्रहण के लिए मौजूदा कानूनी अड़चनों को हटा कर सरकार के कुत्सित प्रयास को लेखक ने जोड़ दिया है; और अंत भी उसी मैदान पर  होता है. हॉकी झारखंड का एक लोकप्रिय खेल है, इसलिए उपन्यास में हॉकी को कथानक का हिसा बनाना लेखक की सूझबूझ द्योतक है, जिससे यह और भी जमीनी बन गया है. हॉकी  की बारीकियों का लेखक का ज्ञान भी अद्भुत है. 

उपन्यास पढ़ते हुए लेखक के वैचारिक- राजनीतिक रुझान और पक्षधरता का पता भी चलता है. इस कारण नेताओं/ दलों के चित्रण में अपनी मर्जी-पसंद के रंग भरे हो सकते हैं. पर इसे पक्षपात नहीं कह सकते. वह उन पीड़ितों के पक्ष में खड़े और उनकी आवाज को मुखर करते दिखते हैं. स्पष्ट है कि उपन्यास मनोरंजन के लिए नहीं, जन सरोकार के लिए लिखा गया है. निरंकुश तंत्र किस तरह विकास के नाम पर जंगल और जमीन के दोहन में लगा है; इसके साथ ही राजनीति में धर्म के इस्तेमाल का भी पारदर्शी चित्रण है. राजनीति के हम्माम में, अपवादों को छोड़ कर, खड़े नंगों की नंगई भी उजागर हुई है, मगर रोचक अंदाज में. सीधे कोई कटाक्ष किये बिना. यह उनकी बातचीत और उनके व्यवहार से पता चलता है.

 

पुस्तक समीक्षा 

 

उपन्यास भले ही काल्पनिक है, पर इसके बहुतेरे पात्र पहचाने जा सकते हैं. मगर उनमें कहीं कहीं घालमेल भी नजर आता है. संभव है, ऐसा जानबूझ कर किया गया हो, ताकि कोई सीधे चरित्र हनन का आरोप न लगा सके. जैसे, जब यह बताया जाता है कि भागवत राय को पार्टी ने पहला गैर आदिवासी मुख्यमंत्री बना कर एक प्रयोग किया है, तो उनकी पहचान को लेकर कोई भ्रम नहीं रहता. लेकिन जब आगे कहीं यह  लिखा है कि भागवत राय ने ‘अपने पिछले कार्यकाल में...’ तो आप नहीं कह सकते कि यह वही आदमी है, जिसका अनुमान आप लगा रहे थे. यह यदि सायास है, तो प्रशंसा के काबिल है. लेखक ने  किसी पार्टी या संगठन का नाम भी नहीं लिया है. मगर झारखंड से वाकिफ पाठक आसानी से समझ सकता है. ‘प्रधानजी’ और ‘अध्यक्ष जी’ को भी पहचानना कठिन नहीं है. वैसे इस सबको संकेतों में लिखने से और उपन्यास के काल का खुलासा नहीं करने से इसे कभी भी घटित घटनाओं पर आधारित माना जा सकता है.

यह एक राजनीतिक उपन्यास है, जो झारखंड में जमीन की लूट, कार्पोरेट और राज्य सत्ता की मिली भगत, राजनीति की उठापटक और जोड़तोड़, सत्ता से करीब होने की मीडिया की होड़ को बखूबी दर्ज करता है. राजनीतिक नेतृत्व की विकास संबधी समझ उपन्यास के इस अंश में उजगर हुई है.  ‘'अर्था’ का लाहिड़ी नामक एक अधिकारी ‘विकास’ पर ज्ञान दे रहा है- '..हमारा अस्तित्व लगातार विकास में निहित है. ज़मीन इस विकास का सबसे मजबूत साधन है. जमीन के बारे में पुरानी समझ को हमारे पुराने क़ानून भी मजबूत करते हैं. इन क्रानूनों में बड़े बदलाव का समय आ गया है. क़ानूनों में बदलाव ही लोगों की समझ को बदलेगा. मसलन, जब हम कहते हैं कि यह राज्य बेशक़ीमती खनिजों का भंडार है, तो  बिना अवदोहन खनिजों का क्या मूल्य है? कुछ भी नहीं! हाँ, यह जरूरी है कि जमीन की सही क़ीमत उन्हें मिले. उन्हें क़ा मिले। इसमें राज्य को...’ मुख्यमंत्री भागवत राय को लग रहा था, जैसे कि उनके मन की बात लाहिड़ी की जुबान से निकल रही थी.... लाहिड़ी का वक्तव्य अतीत, वर्तमान और भविष्य की एक-एक पहेली को खोल रहा था.. ‘जमीन के पुराने क़ानून मरी हुई चट्टान की तरह राज्य के विकास की छाती पर पड़े हुए हैं. विकास की कोई भी पहल करो, वही पुराने क़ानून की धाराओं से तीर निकलने लगते हैं : 'जान देंगे, ज़मीन नहीं'; अभी एक गीत भी चल पड़ा है : 'गाँव छोड़ब नाहीं, जंगल छोड़ब नाहीं, माँय-माटी छोड़ब नाहीं, लड़ाई छोड़ब नाहीं'. क्या है इस गाने में? वही जड़ समझ! ‘अर्था’ के महत्त्व को इस जड़ धारणा के साथ नहीं समझा जा सकता है..”
    
मगर तंत्र में कुछ ईमानदार, जन सरोकार वाले अधिकारी भी होते ही हैं, जो तंत्र पर हावी भ्रष्ट अधिकारियों और उनके राजनीतिक आकाओं को खटकते हैं. इसलिए कि वे उनके स्वार्थ के आड़े आते हैं. उपन्यास में एक ऐसा ही अधिकारी है नितिन मिंज. एक प्रसंग है- ‘अर्था’ नामक कार्पोरेट घराने के एक प्रोजेक्ट के लिए एमओयू होना है. घने जंगल के इलाके में समारोह हो रहा है.  मुख्यमंत्री समेत सरकार और ‘अर्था’ के बड़े अधिकारी उपस्थित हैं. प्रोजेक्ट की उपयोगिता का बखान हो रहा है. मगर उसके लिए भूमि अधिग्रहण में कुछ स्वाभाविक अड़चचनें हैं. मंच से नितिन मिंज अपनी रिपोर्ट पढ़ते हैं- ‘‘मैडम चीफ सेक्रेटरी, सेंट्रल ऑब्जर्वर गर्ग, सेक्रेटरीज, मिस्टर जयंत पटेल, डिप्टी डायरेक्टर, अर्था; उनके साथ आए प्रतिनिधिमंडल के सदस्यों और मेरे सहकर्मी मित्रो! इस परियोजना का सबसे बड़ा हिस्सा...’ दस्तावेज को लेकर नितिन मिंज का असमंजस कायम था. उसने आपस में बातें करते हुए 'अर्था' के प्रतिनिधियों को देखा, अलकारानी की ओर देखा और फिर वह पेपर पढ़ने लगा, ‘इस जिले में प्रस्तावित प्रोजेक्ट के लिए लगभग पचहत्तर हजार हेक्टेयर जमीन का अधिग्रहण करना है. शेष रकबा अन्य जिलों में है. लक्षित भू-भाग में पचास पंचायतों के दो सौ इक्यावन गाँव आते हैं, जो चार विधानसभाओं में बंटे हैं. इसमें लगभग बीस हजार हेक्टेयर कृषि भूमि है. शेष या तो वन क्षेत्र है या सामुदायिक है. लक्षित भूमि का अच्छा -खासा हिस्सा खूंटकट्टी है...” यह रिपोर्ट 'अर्था' और सरकार के अनुकूल नहीं है. मुख्यमंत्री मंच पर ही बगल में बैठी मुख्य सचिव अलकारानी से कहते हैं कि इसका ट्रांसफर  किसी और विभाग में कर दीजिये...
 
उपन्यास के शीर्षक- शालडूंगरी का घायल सपना- से ही जाहिर है कि यह दुखांत है. वास्तव में कथा/ उपन्यास का अंत लड़ाई के हार जाने के रूप में हुआ है, जो किसी भी  संवेदनशील पाठक को मायूस कर सकता है.  ‘शालडूंगरी’ (जिसे पाठक एक काल्पनिक स्थान मान सकते हैं) के मैदान में हॉकी खेलने वाली बच्चियों ने उसे भू-माफियाओं के पंजों से बचा लेने का जो सपना अपनी एकजुटता और हौसले के दम पर पाल रखा था, वह उनकी जिद और पुलिस से भिड़ जाने के दुस्साहस के बावजूद, टूट जाता है. मगर उपन्यास के इस अंश में उस उम्मीद और न हारने की जिद का भी पता चलता है, जो कथा की नायिका जेमा कुई (एक हॉकी कोच) और प्लांट के एक युवा अधिकारी शाजी जेम्स, जो इस लड़ाई में अपरोक्ष रूप से जेमा के साथ हो गया है, के बीच बातचीत के रूप में दर्ज है-     
शाजी कहते हैं, “...छोटी-सी बात, लेकिन इसने विद्या और आपकी पूरी टीम को बदल दिया, नहीं?
जेमा ने हामी भरी, ‘रीफोर्समेंट के जरिए हम खिलाड़ियों के स्किल और स्ट्रेंथ को बढ़ाते हैं. लगातार ओटी और पीटी के माध्यम से सिखाया जाता है कि खिलाड़ियों का माहिर होना ज़रूरी है. लेकिन यह अपने- आपमें जीत की गारंटी नहीं है. अंतिम  क्षण तक जूझना. जीत गए तो जीत को बचाए रखने के लिए और हार रहे हों तो हार को पलटने के लिए जूझते रहना ही खेल है. हम यही सीखते हैं. यही सिखाने की कोशिश करते हैं. हमने देखा है, जूझती हुई टीम हारने के बावजूद पराजय लेकर नहीं लौटती है. सबक लेकर लौटती है...’ जेमा ने अपने ट्राफियों को देखा, ‘टीम खिलाड़ियों का एक समूह या सामंजस्य भर नहीं है. यह एक संवाद है. एक साथ उठने वाली हलचल है. एक दूसरे से जुड़ी गति है. गतियों का जुड़ाव है. जीत कभी भी पूर्वनिश्चित नहीं होती है.’ जेमा को लगा कि वह अपने हॉस्टल के शुरुआती दिनों के सबकों को दुहरा रही हो. वह ख़ुद को तनावरहित महसूस कर रही थी...’’
और उपन्यास के अंतिम दृश्य में, जब राज्य सत्ता की शक्ति, पुलिस के भारी बंदोबस्त के बीच लड़कियों का प्रतिरोध अंततः दम तोड़ता नजर आता है, तभी जेमा को लगता है कि उसकी हॉकी टीम की तेज होनहार खिलाड़ी विद्या, जिसके अपहरण का मामला आसपास उपन्यास का एक अहम् हिस्सा है,  केंद्रित है, अचानक उस लड़ाई में अपनी स्टिक के साथ मौजूद है....   
उपन्यास के फ्लैप पर कथाकार सह पत्रकार प्रियदर्शन की यह पंक्ति बहुत सटीक है- ‘..उपन्यास के अंत में हॉकी स्टिक लिए मुख्यमंत्री की ओर दौड़ती लडकी के साथ हम (पाठक) भी दौड़ पड़ते हैं और उसे बचाने की कोशिश में हमारी आवाज भी शामिल हो जाती है.'
जेमा के शब्दों में 'जूझती हुई टीम हारने के बावजूद पराजय लेकर नहीं लौटती है. सबक लेकर लौटती है...’ हम उम्मीद कर सकते हैं कि जेमा की टीम इस खेल (या लड़ाई) में फिलहाल भले ही हार गयी है, पर पस्तहिम्मत नहीं हुई है. लड़ाई जारी है. जारी रहेगी.
श्रीनिवास  
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शालडूंगरी का घायल सपना
लेखक- मानोज भक्त 
प्रकाशक- राजकमल पेपरबैक्स
कीमत : 299 ₹

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