राजधानी रायपुर के बाद बिलासपुर विधानसभा को ही प्रदेश की सबसे महत्वपूर्ण सीट माना जाता है. यहां लगभग 2 लाख मतदाता हैं. जीत-हार का अनुमान लगाने निकलने पर जिस भी गली से हम गुज़रे, वहां दस में से आठ ने कहा कि पिछले 15 वर्षों से सत्तापक्ष की तरफ़ से विधायक रहे व्यक्ति ने शहर की हालत बिगाड़ रखी है, कुछ भी हो जाए उसे (बीजेपी) वोट नहीं देंगे. उसका हारना तय सा लग रहा होता है, फिर एक खेल हो जाता है...ऐन मतदान के दिन शहर के 35000 लोगों को मालूम चलता है कि वोटर लिस्ट से उनका नाम ही हटा दिया गया है. यानि सत्ता के विरोध में पड़ने वाले 35 हज़ार (17.5 प्रतिशत) वोट एक झटके में बेकार हो गए.
छत्तीसगढ़ में दूसरे चरण में 19 ज़िलों की 72 सीटों के लिए मतदान 20 नवम्बर को संपन्न हो गए. 119 महिलाओं सहित कुल 1079 प्रत्याशी दुसरे चरण की चुनावी दौड़ में शामिल थे. चुनाव आयोग के अनुसार दूसरे चरण में 71.93 प्रतिशत लोगों ने वोट डाले. पहले चरण में नक्सल प्रभावित इलाकों में हुई 18 सीटों पर 12 नवम्बर को हुए मतदान का प्रतिशत 76.42 रहा. दोनों चरणों को जोड़कर राज्य का कुल मतदान प्रतिशत 74.17 रहा. मंगलवार को हुए मतदान में पूरे छत्तीसगढ़ के लगभग 1.54 करोड़ लोगों (77.53 लाख पुरुष मतदाता, 76.46 लाख महिला मतदाता और 877 ट्रांसजेंडर मतदाता शामिल थे) ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया.
चुनाव की सीटों को आधार बनाएं तो बिलासपुर, छत्तीसगढ़ का सबसे बड़ा संभाग है. यहां 24 विधानसभा सीटें हैं. इन 24 में से 5 सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए और 4 अनुसूचित जाती के लिए रिज़र्व रही हैं. बताते हैं जिसने इस संभाग में बढ़त बना ली, प्रदेश में सरकार बनाने की उसकी राह आसन हो जाती है. बिलासपुर, ज़िला मुख्यालय भी है, छत्तीसगढ़ का हाईकोर्ट भी यहीं स्थित है. प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह, कांग्रेश आध्यक्ष राहुल गांधी, उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, बसपा सुप्रीमो मायावती, आम आदमी पार्टी के संजय सिंह व गोपाल राय आदि बड़े नामों ने यहां के मतदाताओं को रिझाने के लिए भरपूर ताकत लगाई है.
इस निर्णायक संभाग की बिलासपुर सीट भाजपा के लिए बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि भाजपा में मंत्री अमर अग्रवाल पिछले 15 वर्षों से यहां के विधायक हैं. जमीनी सच्चाई की बात करें तो इस बार उनका हारना लगभग तय ही माना जा रहा था और कांग्रेस के प्रत्याशी शैलेश पाण्डेय की जीत भी वैसी ही पक्की लग रही थी. वर्षों से चलते घटिया स्तर के सीवरेज के काम के कारण सारा शहर धूल का गुबार बन चुका था, लोग कभी गड्ढों में गिरकर, तो कभी बीमारी से मर रहे थे.
अधिकतर लोग पुराने विधायक को बदलने की बात कह रहे थे. और ज़ाहिर है इतने बड़े स्तर पर फैली नाराज़गी विधायक महोदय तक तो पहुचती ही होगी. इस नाराज़गी को दूर करने की कोई जुगत तो मंत्री जी को लगानी ही थी. इन मंत्री जी की फ़ोटो वाले लिफ़ाफ़े का एक वीडियो भी वाट्सऐप में घूमा. इस वीडियो में लिफ़ाफ़े में से मंत्री जी के फ़ोटो वाली चुनावी पर्ची के साथ एक 500 का नोट भी निकलता दिख रहा है (हालांकि ये किसी की बदमाशी भी हो सकती हैं).
लोगों की नाराज़गी दूर करने की कोशिश में बिलासपुर में चुनाव से ठीक एक महीना पहले सड़कों की मरम्मत का काम शुरू हुआ. उसने सड़कों पर डामर की एक पतली परत बिछा दी गई ताकि लोग इतने सालों की तकलीफ़ भूल जाएंगे. लेकिन बिलासपुर शहर की जनता ने इस चुनावी सड़क की पोल खोल कर रख दी. मज़े की बात ये कि इस सड़क का काम मतदान के एक दिन पहले बंद भी हो गया.
बीच-बीच में नकद, साड़ी, शराब आदि बांटे जाने की कई ख़बरें सामने आती रहीं. सामाजिक कार्यकर्ताओं पर अर्बन नक्सल होने का आरोप, मंदिर मस्जिद पर डिबेट, सोनिया-राहुल पर आपत्तिजनक बयान, टीवी पर विज्ञापन और हर जुगत लगाई गई कि किसी भी तरह वोट पक्ष में आ जाए. लेकिन किसी भी दांव ने काम नहीं किया और मतदान की तारिख 20 नवम्बर आ गई.
इस बार हर कोई इस बात के लिए आश्वस्त था कि सिटिंग एमएलए हार जाएगा. इसी बीच बिलासपुर सीट के लगभग सभी मतदान केन्द्रों में शोरगुल करते लोग नज़र आने लगे. हर वार्ड से सैकड़ों लोग पोलिंग बूथ तक जा तो रहे थे पर वोट डाले बिना ही लौट रहे थे. इन लोगों के नाम मतदाता सूची से ही ग़ायब थे. इनमें कई ऐसे लोग थे जिन्होंने पिछली बार वोट दिया था.
बिलासपुर में शांति नगर के रहने वाले प्रशान्त ठाकुर ने बताते हैं कि उनके पूरे परिवार का नाम सूची में नहीं है जबकि पिछली बार सभी ने वोट डाला था. मसानगंज के रहने वाले अरुण भंगे ने बताया कि उनके घर में 9 सदस्य हैं जिनमे से 7 लोगों के नाम लिस्ट में नहीं होने के कारण वे लोग वोट नहीं दे पाए.
जिनके नाम सूची से ग़ायब हैं उनकी संख्या एक दो या दस बीस में नहीं है। मिली जानकारी के अनुसार बिलासपुर सीट के लिए वोट करने वाले लगभग 35 हज़ार लोगों नाम मतदाता सूची से कट जाने की वजह से ये लोग वोट डालने के अपने अधिकार से वंचित रह गए. जिन दो लोगों के नाम हमने ऊपर लिखे हैं उनमे ज़रा सी समानता है.
वो ये कि एक ने सोशल मीडिया पर भाजपा को वोट न देने की अपील जारी कर रखी थी और दुसरे के व्यवसायिक संस्थान के बाहर कांग्रेस के झंडे लगे हुए थे.
हालांकि भाजपा के ख़िलाफ़ वोट देने की बात कहना और फिर इनका नाम लिस्ट से कट जाना, ये महज़ एक इत्तफ़ाक भी हो सकता है, लेकिन 10-20 नाम होते तो शायद इत्तफ़ाक सा महसूस भी होता. 35 हज़ार नामों का कटना, भला इत्तफ़ाक कैसे हो सकता है. हार रहे प्रत्याशी को जिताने के लिए ये संख्या पर्याप्त है.
क्या सच में ये कोई राजनैतिक दांव-पेच है? क्या इसकी गंभीरता से जांच होगी? -अनुज श्रीवास्तव (साभार: सबरंग)