अचानक ईरान जल उठा है. पुलिसिया दमन के बावजूद औरतों का आन्दोलन विभिन्न शहरों में फैलता जा रहा है. कल तक हममें से बहुतों को यह पता नहीं था कि ईरान की महिलाओं में घर से बाहर हिजाब न पहनने को दंडनीय अपराध बनाने के खिलाफ कितने समय से, कितना गुस्सा पल रहा था. कहा जाता है कि पूरी तरह घिर जाने पर बिल्ली भी अपने मजबूत दुश्मन से भिड़ जाती है. यही ईरान में हुआ है. जब वहां की ‘मोरल पुलिस’ ने बिना हिजाब के बाहर निकली एक युवती को गिरफ्तार किया; और पुलिस हाजत में उसकी मौत हो गयी, आखिरकार महिलाओं के सब्र का पैमाना भर गया. और आज उनका गुस्सा वहां के विभिन्न शहरों में अलग अलग रूप में फूट रहा है. इस आंदोलन का एक सकारात्मक पक्ष यह है कि अब यह सिर्फ महिलाओं का आंदोलन नहीं रह गया है, बहुतेरे पुरुष भी उनके साथ हैं. संभव है, विभिन्न कारणों से मौजूदा सरकार और व्यवस्था से नाराज लोगों का गुस्सा भी इसी बहाने फूट पड़ा हो.
मगर सच यह भी है कि समाज (पुरुष) द्वारा महिलाओं के लिए तय कर दी गयी ‘मर्यादाओं’ और सीमाओं को अधिकतर महिलाएं आज भी पवित्र ‘ईश्वरीय’ विधान और उनका पालन करना कर्तव्य समझती हैं. आज से कोई सवा सौ साल पहले (1889 में) पंडिता रमाबाई ने लिखा था-
"ज्यादातर लोग यह सोचते हैं कि औरतें गुलामी में नहीं बल्कि अपनी स्वाभाविक स्थिति में जी रही हैं. यह धारणा कि औरतें दमित नहीं हैं और वर्तमान स्थिति को बदले जाने की कोई जरूरत नहीं है, लोगों के दिमाग में इतनी गहरी धंसी हुई है कि किसी के लिए यह यकीन करना ही मुश्किल है कि उसकी स्थिति कितनी दयनीय है. इससे भी बुरा यह है कि खुद औरतें यह मानती हैं कि उनकी स्थिति जैसी होनी चाहिए वैसी ही है. अतीत में, जब अमेरिका में काले लोग गुलाम थे, उन्हें भी ऐसा ही यकीन था...यह मानसिकता गुलामी की सर्वोच्च अवस्था है...यह ईश्वर की दी हुई दो नेमतों, आत्म-विश्वास और आजादी की इच्छा, को नष्ट कर देती है."
कल तक शेष विश्व का बड़ा हिस्सा यही मानता था कि ईरानी महिलाएं भी हिजाब की अनिवार्यता को 'स्वेच्छा' से स्वीकार करती हैं. कर्तव्य मान कर. अब पता चल रहा है कि यह सच नहीं था. हालांकि भारत सहित अनेक देशों की स्थिति बहुत नहीं बदली है.
ईरान की महिलाओं का यह गुस्सा दरअसल उस मोरल पुलिसिंग के खिलाफ है, जो ‘नैतिकता’ और ‘संस्कृति’ के नाम पर अपनी मान्यता पूरे समाज पर लादने के लिए की जाती है. ईरान में तो डंडेधारियों को उस फरमान की उदूली करने वालों को गिरफ्तार करने, प्रताड़ित करने का अधिकार है. लेकिन अन्य देशों में यह काम सरकार की शह पर बिना वर्दी के गुंडे करते हैं. भारत में तो करते ही हैं. अलग अलग समुदायों के स्वयंभू ठेकेदार भी यह काम करते हैं. और इस तरह की सारी पाबंदियों की गाज अमूमन महिलाओं पर ही गिरती है. माना जाता है कि कथित महान संस्कृति और परम्पराओं की रक्षा का दायित्व महिलाओं पर ही है.
कभी सुना कि लड़कों-मर्दों को पैंट-शर्ट नहीं पहनना चाहिए? कि उनको धोती ही पहननी चाहिए? लेकिन औरत का पश्चिमी लिबास पहनना, छोटे बाल रखना बहुतों को अखर जाता है.
कर्नाटक में भी हिजाब पर रोक कोई सहज फैसला नहीं था. इसके लिए बाकायदा मुहिम चलाई गयी. कुछ लड़के केसरिया गमछा लपेट कर स्कूल आने लगे, ताकि उनको रोका जाये और वे हिजाब को मुद्दा बना सकें.
बेशक हिजाब या घूंघट, सिन्दूर या मंगल सूत्र महिलाओं के दोयम दर्जे के प्रतीक हैं. हम जैसे लोग चाहते हैं कि महिलाएं इनसे मुक्त हो जाएँ, ऐसी परम्पराओं का त्याग कर दें, जो उनको कमतर बताने के प्रतीक हैं. लेकिन यहां इरादा महिलाओं को इस जकड़ से मुक्त करने का इरादा नहीं था. मुसलिम समाज और महिलाओं को टारगेट करना था.
तभी तो कर्नाटक सरकार द्वारा स्कूलों में हिजाब पर रोक के समर्थकों और खुद कर्नाटक सरकार ने ईरान के आंदोलन को अपने पक्ष में पुख्ता दलील और प्रमाण मान लिया. सुप्रीम कोर्ट में ईरान का उदहारण भी दिया गया. इस तरह अपनी गलती के बचाव में दूसरी गलती को आड़ बनाने का प्रयास किया गया.
जो भी हो, जो स्त्री-पुरुष समानता का पक्षधर होगा, वह ईरान की आंदोलनरत महिलाओं के पक्ष में होगा, साथ ही भारत में हिजाब के बहाने स्वेच्छा से हिजाब पहनने के लड़कियों के अधिकार पर रोक के खिलाफ भी. इसमें कोई विरोधाभास नहीं है. इसलिए कि दोनों ही मामले नागरिक स्वतंत्रता से जुड़े हैं. अपने ढंग से जीने के सहज अधिकार पर रोक लगाने से जुड़े हैं.