जैसे जैसे संसदीय चुनाव का वक्त करीब आ रहा है, एक और ‘अयोध्या काण्ड’ की तैयारी जोर पकड़ती दिखने लगी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चुप हैं, मगर उप्र के मुख्यमंत्री पूरे रंग में आ गए हैं। फ़ैजाबाद का नाम अयोध्या हो गया। अयोध्या में सौ फीट से भी ऊंची राम की प्रतिमा लगाने का ऐलान हो गया। कि ‘वहीं’ पर मंदिर का निर्माण कभी भी शुरू हो सकता है। उधर सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया है कि इस मसले पर तत्काल और प्राथमिकता के आधार पर सुनवाई नहीं की जा सकती। उसके बाद से कहा जा रहा है कि सुप्रीम कोर्ट को हिंदुओं की आस्था का सम्मान करना चाहिए। कि हिंदुओं के सब्र का बांध टूट रहा है; और टूट गया तो बहुत बुरा होगा, जिसके लिए हिंदू जवाबदेह नहीं होंगे। एक संत ने इसके लिए अनशन की घोषणा कर दी है।
भाजपा/संघ के नेता और समर्थक उनके हमेशा की तरह कहेंगे कि राम मंदिर उनके लिए राजनीति का नहीं, आस्था का सवाल है। लेकिन इन गतिविधियों और ऐसे बयानों का इसके अलावा और क्या अर्थ निकला जा सकता है कि भाजपा अगला संसदीय चुनाव धर्मोन्माद के दम पर ही जीतना चाहेगी। उसे एहसास हो गया है कि विकास के और बीते चार वर्षों में अभूतपूर्व उपलब्धियों के तमाम दावों के बावजूद जनता का मोहभंग होने लगा है। इसलिए अब भाजपा कथित ‘मोदी मैजिक’ पर भरोसा नहीं कर सकती। बीते दिनों संघ प्रमुख मोहन भागवत के कुछ बयानों से ऐसा लगा था कि शायद संघ के चिंतन में बदलाव आ रहा है या वह खुद को बदलना चाहता है। लेकिन अब अयोध्या विवाद पर भागवत के इस कथन से कि सरकार संसद में विधेयक लाकर कानून बनाये, स्पष्ट हो गया है कि संघ की प्राथमिकता भी यही है कि किसी तरह भाजपा सत्ता में पुनः आ जाये।
सवाल है कि सुप्रीम कोर्ट अभी फैसला दे दे या बाद में, क्या ये उस फैसले को (इनकी अपेक्षा के विपरीत होने पर भी) स्वीकार कर लेंगे? यदि नहीं, तो फैसले का इंतजार क्यों? यदि हां, तो क्या उन्हें मालूम है कि सुप्रीम कोर्ट अभी फैसला उनके पक्ष में ही आएगा?
भाजपा जो भी करे; और सुप्रीम कोर्ट का फैसला जब और जो भी हो, अदालत में अयोध्या विवाद से सम्बद्ध कौन सा मुद्दा विचाराधीन या अधिक महत्वपूर्ण है? इस मसले पर हुई और हो रहा विलम्ब किसके साथ ‘अन्याय’ है? हिंदू (मंदिर ‘वहीं’ वाले) पक्षकारों की मानें तो हिंदुओं के साथ। क्या सचमुच?
बेशक यह विवाद बहुत पुराना है। माना जाता है कि बाबर के सेनापति मीर बाकि ने वहां उस मसजिद का निर्माण कराया था, जिसे बाबरी मसजिद कहा जाने लगा। आरोप है कि मसजिद एक मंदिर को तोड़ कर बनायी गयी। और प्रचारित यह किया गया कि वह मंदिर असल में राम का जन्म स्थान है। इसलिए ‘वहीं’ पर मंदिर निर्माण लक्ष्य घोषित हो गया। सच यह भी है कि ब्रिटिश काल (1853) में ही निर्मोही अखाड़े ने उक्त भोखंड पर दावा किया था। इसे लेकर साम्प्रदायिक झड़प भी हुई थी। कुछ वर्ष बाद (1859) में अंग्रेज शासकों ने बाबरी मसजिद परिसर के भीतरी हिस्से में मुसलिमों को नमाज की और बाहरी हिस्से में हिंदुओं को पूजा-अर्चना की इजाजत दे दी थी। फिर देश की आजादी के बमुश्किल एक साल बाद, ’49 में कुछ लोगों ने मसजिद के अंदर भगवान् की मूर्तियाँ रख दीं और भजन-कीर्तन करने लगे। तब से यह मामला स्वतंत्र भारत की अदालतों में लंबित है।
जो भी हो, चार या पांच सौ वर्ष पहले क्या हुआ था, वहां मसजिद किसी मंदिर को तोड़ कर बनायी गयी थी या नहीं, उसके भी हजारों या लाखों वर्ष पहले हिंदुओं के आराध्य (भारत के गैर हिंदुओं के भी आदरणीय) श्रीराम का जन्म ठीक ‘वहीं’ पर हुआ था या नहीं, यदि ऐसे मुद्दों (जिन पर न कोई अदालत विचार कर सकती है, न फैसला दे सकती है, न ही शायद सुप्रीम कोर्ट के सामने ये विचार के मुद्दे हैं), को छोड़ दें, तो इस विवाद के तीन प्रमुख मुद्दे हैं। एक, उस ‘विवादित भूखंड पर स्वामित्व किसका था/है या होना चाहिए; दो, छह दिसंबर ’92 को एक उन्मादी भीड़ द्वारा, अदालत के यथास्थिति कायम रखने के आदेश के बावजूद, मसजिद ढाहने के लिए कौन लोग दोषी थे; और तीसरा, क्या 1949 के दिसंबर (संभवतः 23) की रात बाबरी मसजिद में चुपके से ‘राम लला’ की मूर्तियाँ रख देना क्या आपराधिक कृत्य था, हां तो क्या उसके दोषियों पर कोई कार्रवाई होनी चाहिए? इनमें से तीसरा मुद्दा असल में स्वामित्व के मुददे से जुड़ा है।
मगर उस भूखंड की मिल्कियत का फैसला पांच सौ या हजारों वर्ष पहले वहां की स्थिति या आस्था के आधार पर नहीं हो सकता। यह फैसला भारत के वर्तमान कानूनों और ’49 में उस जमीन या इमारत पर किसका कब्ज़ा था, इसी आधार पर हो सकता है या होना चाहिए।
मान लें कि अदालत मुस्लिमों के पक्ष में फैसला देती है, तो न्याय प्रक्रिया और फैसले में हुए विलम्ब के कारण उनके साथ अन्याय हुआ, यह साबित नहीं हो जायेगा? आधी रात में मसजिद के अंदर मूर्तियाँ रख दिये जाने से पहले तक वह मसजिद थी, स्थानीय मुस्लिम नमाज पढ़ते थे, यह एक तथ्य है। उस रात के बाद, मुसलिमों द्वारा प्रशासन और अदालत में गुहार लगाने के बावजूद व्यवहार में मुसलिमों के लिए वहां किसी धार्मिक आयोजन पर पाबंदी लग गयी। तब से मुस्लिम अदालत के फैसले का इंतजार ही कर रहे हैं। उन लोगों ने कभी इस मुद्दे पर आंदोलन नहीं किया, हमेशा यही कहते रहे कि अदालत का फैसला जो भी होगा, हम उसे स्वीकार करेंगे।
दूसरी ओर ‘वहीं’ पर मंदिर बनाने की बात करनेवालों ने कभी खुल कर नहीं कहा कि हम कोर्ट का फैसला मान लेंगे। हालांकि वे अलग अलग बोली बोलते हैं, मगर कुल मिला कर अंदाज यही यह है कि किसी कीमत पर हो, मंदिर तो (और ‘वहीं’ पर) बनेगा ही। कि आस्था के मामले में कोर्ट कोई फैसला कैसे दे सकता है। प्रसंगवश, सबरीमाला मंदिर फैसले के पहले जो भाजपा नेता हर उम्र की महिलाओं के मंदिर प्रवेश का पक्ष ले रहे थे, वे भी अब पलट गये हैं। खुद भाजपा अध्यक्ष अमित शाह सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विरोध कर रहे लोगों के समर्थन में बोल चुके हैं। यह एक संकेत नहीं है कि यदि अयोध्या मामले पर कोर्ट का विपरीत फैसला आया, तो इनका रुख क्या होगा?
मान लिया जाये की अदालत हिंदुओं के पक्ष में फैसला देती है, तब भी छह दिसंबर ’92 को जो हुआ; या दिसंबर ’49 में जो हुआ था, उसे सही मान लिया जायेगा? सही माना जा सकता है? आप या हम किसी की हत्या कर दें; और बाद में पता चले कि मृतक खुद एक हत्या का अपराधी था, तो क्या हम हत्या के अपराध से मुक्त हो सकते हैं? यदि नहीं, तो बाबरी मसजिद ध्वंस के मामले में अब तक कोई फैसला नहीं आना भी क्या अतिशय विलम्ब नहीं है; और क्या उसके आरोपियों (संभावित दोषियों) को, जो इस अवधि में बीच ऊंचे ऊंचे पदों पर रह चुके हैं, इसका लाभ नहीं मिला है?
इस पूरे प्रकरण में एक मौजूं सवाल यह भी है कि यह किस आधार पर कहा जाता है कि पूरा देश ‘वहीं’ पर मंदिर निर्माण के पक्ष में है, कि सौ करोड़ हिंदुओं में बेचैनी है, कि हिंदुओं के सब्र का बाँध टूटने को है आदि आदि। क्या, भाजपा/संघ और एनडीए दलों से इतर दलों संगठनों उनके समर्थकों में हिंदू नहीं हैं या उनकी राम में आस्था नहीं है?
सच यही है कि शायद ही कोई हिंदू अयोध्या में मंदिर निर्माण का विरोधी हो। ‘वहीं’ पर बने इस पर मतभेद हो सकता है; या जोर-जबरदस्ती से विरोध हो सकता है। साथ ही इस मुद्दे को राजनीतिक हित के लिए इस्तेमाल किये जाने से भी बहुतों का विरोध होगा, है। अदालत कुछ भी फैसला दे, शायद वह अंतिम समाधान साबित न हो। बेहतर यही है कि सभी पक्ष मिल बैठा कर आपसी सहमति से नासूर बंटे इस विवाद का कोई स्थायी समाधान निकालें।
सरकार के पास एक तरीका यह भी है कि वह या तो संसद से मंदिर निर्माण के लिए कानून पारित कराये; या फिर अध्यादेश ले आये। लेकिन शायद सरकार खुल कर ऐसा कुछ करना नहीं चाहती, जिससे उसकी संकीर्ण हिंदूवादी छवि को और पुख्ता कर दे। दूसरे, इस मुद्दे का गर्म रहना अगले आम चुनाव में उसके लिए काम का साबित हो सकता है। विपक्षी दल/नेता खुद संशय में हैं; और मुस्लिम परस्ती के आरोप से बचने के लिए खुद को शुद्ध हिंदू और जनेऊधारी साबित करने का फूहड़ प्रयास कर रहे हैं। हालांकि तय है कि हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण का लाभ भाजपा को ही मिलेगा।
निश्चय ही किसी विवाद का इतने लम्बे समय तक लंबित रहना उचित नहीं है। लेकिन इतने संवेदनशील मुद्दे पर धैर्य और समझदारी जरूरी है। इस विवाद की आंच पर राजनीतिक रोटी सेंकने का प्रयास दूरगामी लिहाज से देश के लिए नुकसानदेह ही साबित होगा। लेकिन जिस तरह भाजपा घूम फिर कर ‘वहीं’ पहुँच गयी है, उससे स्पष्ट है कि उसका मकसद किसी तरह सत्ता हासिल करना ही है।