प्रियंका के आगमन से चुनाव-पूर्व त्रिकोणीय हलचल

नई दिल्ली (सईद नकवी): प्रियंका गांधी का जो चेहरा मुझे याद है, वह उनकी मां और भाई के चुनाव क्षेत्र रायबरेली और अमेठी में उनके लिए अप्रैल-मई 2014 के दौरान चुनाव प्रचार के वक्त का है। 

चुनाव अभियान की अनोखी बात यह थी कि परिवार के इन दोनों संसदीय क्षेत्रों की जिम्मेदारी संभाल रहे कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के प्रतिनिधि किशोरी लाल शर्मा को अगर वर्षो से नहीं तो सप्ताहों और महीनों से प्रियंका गांधी के आने का इंतजार रहता था। 

हार्डी (लॉरेल एंड हार्डी में) की तरह मूछ रखने वाले शर्मा भीड़ जुटाते, पंचायत के नेताओं को इकट्ठा करते और स्कूलों व कॉलेजों में शिक्षकों को प्रियंका गांधी के भाषण सुनने के लिए जुटाते थे। लेकिन ज्यादातर अवसरों पर आमंत्रित लोगों के चाय-नाश्ते के बाद शामियाना हटा दिया जाता था। दरअसल प्रियंका नहीं पहुंचती थीं।

राजीव गांधी के पायलट मित्र सतीश शर्मा द्वारा चुने गए किशोरी लाल शर्मा स्थानीय प्रभारी थे। प्रियंका गांधी को जागीरों पर सियासी पकड़ की पूरी जिम्मेदारी सौंपी गई थी, लेकिन लंबे समय तक उनकी गैरमौजूदगी और बार-बार कार्यक्रम रद्द होने से उनके स्वास्थ्य को लेकर अविश्वसनीय अटकलें लगने लगीं। 

उनकी अरुचि और अक्षमता से परिवार को अवश्य ही चौकन्ना हुआ होगा, क्योंकि नरेंद्र मोदी इतिहास के सबसे खर्चीले मीडिया कैंपेन में जुटे थे। मीडिया पर पूरी तरह मोदी का जादू चल गया था। सोनिया गांधी को खबर मिली कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस शून्य पर सिमटने वाली है। कभी सत्ता के बगैर नहीं रहने वाले परिवार ने पैनिक बटन दबाया ताकि कम से कम सोनिया गांधी और राहुल गांधी लोकसभा में पहुंच सकें। 

उसके बाद तो प्रियंका ने इतने प्रभावी ढंग से चुनाव प्रचार अभियान में जोश भरा कि परिवार की इज्जत दोनों संसदीय क्षेत्रों में बच गई। दोनों चुनावों में जीत का श्रेय पूरी तरह उनको ही जाना चाहिए।

उनके पति रॉबर्ट वाड्रा के व्यावसायिक अपराध उनके कमजोर पक्ष थे, जहां विपक्ष हमला बोल सकता था, लेकिन प्रियंका ने चाल बदल दी। उन्होंने खुद का मुद्दा उठाया। उन्होंने कहा, "मुझे अपनी दादी की तरह हमेशा विश्वास है कि आखिरकार सच सामने आएगा।" 

प्रियंका ने कहा कि वह विपक्ष द्वारा परिवार को जलील करने से दुखी नहीं हैं, बल्कि उनको अपने घबराए बच्चों को जवाब देना पड़ रहा है कि वे क्या सुन रहे हैं।

प्रियंका की चारुता और लंबी कद-काठी व उनके साड़ी पहनने का ढंग बिल्कुल इंदिरा गांधी जैसा है।

प्रियंका की शख्सियत सार्वजनिक जीवन के लिए काफी आशावादी है, लेकिन उनके साथ दो दिक्कतें हैं। पहली बात यह कि उनके बौद्धिक और सांस्कृतिक कार्य की कोई समीक्षा उपलब्ध नहीं है, जोकि इंदिरा गांधी के संदर्भ में प्रचुर मात्रा में मिलता था। दूसरा, कठिन परिश्रम करने की उनकी क्षमता को लेकर है। 

हालांकि पार्टी अध्यक्ष उनके भाई ने उनकी उम्मीदवारी को काफी महत्वाकांक्षी बताया है। उन्होंने कहा,"हम उत्तर प्रदेश में अपना मुख्यमंत्री चाहते हैं।" सत्ता में रहने के लिए इसकी जरूरत है।

मायावती और अखिलेश के एकसाथ आने के बाद राहुल ने विनम्रता के साथ कहा था, "मैं मायावतीजी और अखिलेशजी का आदर करता हूं और हम एकसाथ मिलकर भाजपा को शिकस्त देंगे।"

उन्होंने कहा था कि अगर आग्रह किया जाएगा तो वह सपा-बसपा गठबंधन से बात करने के लिए तैयार हैं। 

उन्होंने कहा, "हम पीछे नहीं रहेंगे।" आगे रहने का मतलब उत्तर प्रदेश में गठबंधन में नेतृत्व की भूमिका में रहना है। यह बाहरी वार्ता की चाल होगी। बेशक कांग्रेस अगड़ी जाति की प्रमुख पार्टी है। जिस प्रदेश में गंगा, यमुना, त्रिवेणी, काशी, मथुरा, अयोध्या हैं, वहां संकोचवश निम्न जातियों की रचनाओं को स्वीकार किया जाना चाहिए, यही पार्टी के लिए अभिशाप है। 

(सईद नकवी राजनीति व कूटनीति मामलों के टिप्पणीकार हैं। इस आलेख में विचार उनके निजी हैं)

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