संपूर्ण क्रांति  : पचास साल का अधूरा सफर

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:: न्‍यूज मेल डेस्‍क ::

वर्ष 1974 में गांधी मैदान (पटना) में लोकनायक जयप्रकाश नारायण द्वारा "संपूर्ण क्रांति' के उद्घोष को पचास वर्ष पूरे हो रहे हैं. उस आंदोलन का मकसद समाज और व्यवस्था में आमूल बदलाव करना था. मगर अफसोस कि वह लक्ष्य अधूरा रह गया! लेकिन उसकी जरूरत और प्रासंगिकता बनी हुई है. इसलिए उस आंदोलन और उस घोषणा को पचास साल होने पर महज औपचारिकता के लिए नहीं, इस दृष्टि से भी याद करने की जरूरत है कि उस अधूरे लक्ष्य को हम भूल नहीं जायें, बल्कि यह विचार कर सकें कि एक बेहतर समाज गढ़ने के उस स्वप्न को साकार करने के लिए क्या किया जा सकता है.
आज की युवा पीढ़ी के मन में यह सवाल उठ सकता है कि साधारण- सी लगने वाली एक घटना- एक जुलूस, एक सभा- में ऐसा क्या है कि हम उसे हर वर्ष और बार बार याद करते हैं? हम मतलब मुझ जैसे उस जुलूस में शामिल लोग, जो तब युवा थे. इस पर पहले भी लिखता रहा हूं. इसलिए अब थोड़ा संकोच भी होने लगा है, मानो एक नॉस्टेल्जिया की तरह हम अतीत के किसी कालखंड को भूल नहीं पा रहे हैं. बेशक चूंकि हम उस दौर, उस आंदोलन में अपनी भूमिका को लेकर गर्व का अनुभव करते हैं, इसलिए शायद एक कर्मकांड की तरह भी उसे याद करते हैं. हम जैसों के लिए तो इसलिए भी खास है कि अपने जीवन में समग्र बदलाव के उस आंदोलन में थोड़ा योगदान देने के अलावा हम देश और समाज के लिए ऐसा कुछ कर भी नहीं पाते हैं, जिसे इस तरह याद कर सकें. लेकिन सच यह है कि ‘पांच जून’ आजाद भारत के इतिहास की भी एक खास तारीख बन चुकी है. इसलिए कि उसी दिन बिहार (झारखंड सहित) के विद्यार्थियों की चंद मांगों को लेकर और आक्रोश जनित जो आंदोलन 18 मार्च 1974 को शुरू हुआ था, उसने एक व्यापक गंभीर, समाज परिवर्तन के आंदोलन का रूप ले लिया. इसलिए कि उसी वर्ष पांच जून को  पटना के गांधी मैदान में आजादी के आंदोलन के एक वृद्ध हो चले नायक ने उसे ‘सम्पूर्ण क्रांति’ करार दिया. तब वह महज विधानसभा भंग करने की मांग और सरकार बदलने  का नहीं, समाज और व्यवस्था बदलने का आंदोलन बन गया.
मुझ जैसे हजारों या लाखों युवा तो उस आंदोलन में यूं ही कूद पड़े थे. बिना यह जाने समझे कि इससे हासिल क्या होगा. बस तत्कालीन सरकार के अहंकार और दमनकारी रवैये पर गुस्सा था. हालांकि आठ अप्रैल को ही जयप्रकाश नारायण (जेपी) के आंदोलन के समर्थन में आ जाने और पटना में एक मौन जुलूस का नेतृत्व करने से यह लगने लगा था कि जो होगा, अच्छा ही होगा. 

जेपी

पांच जून,1974 की उस ऐतिहासिक रैली, जिसे उस समय तक की पटना की सबसे बड़ी रैली माना गया था, के सिर्फ एक प्रसंग का यहां जिक्र करना चाहूंगा. राजभवन से रैली की वापसी के दौरान एक विधायक (फुलेना राय, पश्चिम चंपारण, जहां से मैं आंदोलन से जुड़ा था) के फ्लैट से रैली पर गोली चली थी. संयोग से तब हमारी टोली वहीं थी. आंदोलनकारियों में भारी उत्तेजना फैल गयी. सभी उस जगह जमा होने लगे. तभी एक जीप पर लगी माइक से जेपी की अपील सुनाई गयी : आप सब चुपचाप शांति बनाये रखते हुए गांधी मैदान चले आयें. और लोग शांत हो गये. ऐसा था उस जननायक का प्रभाव! यदि उस समय हिंसा भड़क गयी होती, तो पता नहीं आंदोलन का स्वरूप क्या हो जाता! क्या पता उस दिन गांधी मैदान में वह सभा हो पाती भी या नहीं. बहरहाल, सभा हुई.

गांधी मैदान में जेपी, जिन्हें शायद उसी सभा में पहली बार 'लोकनायक' घोषित किया गया, एक शिक्षक की तरह बोलते रहे. आवाज में कोई उत्तेजना नहीं. मेरे पल्ले बहुत कुछ पड़ा भी नहीं या कहें, उतने धैर्य से सुन ही नहीं सका. बस इतना जान गया कि यह कोई तात्कालिक या कुछ दिनों का मामला नहीं है, कि इसमें लगना है तो लंबी तैयारी के साथ लगना होगा. शायद जीवन भर.

जल्द ही वह आंदोलन बिहार के बाहर फैलने लगा. उसकी ताप केंद्र की इंदिरा गांधी सरकार तक पहुंचने लगी. लेकिन इसके साथ यह भी हुआ कि समाज परिवर्तन के लक्ष्य पर सरकार बदलने का तात्कालिक उद्देश्य हावी होने लगा. पांच जून को जेपी ने गांवों से जुड़ने, जनता को जागरूक करने, संगठित करने का दायित्व हमें सौंपा था, मगर हम उस काम में ईमानदारी और गंभीरता से नहीं लग सके. गांव गांव में 'जनता सरकार' गठित करना था. बहुत कम जिलों में बहुत कम गांवों में गठित हो सकी.  हमारे जिले में सिर्फ एक गांव- सिरिसिया अड्डा- में, जो प्रशासन की आंखों में चुभता रहा.
वह समग्र बदलाव का आंदोलन बन गया : जेपी का वह (पांच जून का) भाषण बहुप्रचारित है, जिसमें उन्होंने पहली बार सम्पूर्ण क्रांति का उद्घोष किया था. कहा था- ‘मित्रो, आंदोलन की चार मांगें हैं- भ्रष्टाचार, मंहगाई और बेरोजगारी का निवारण हो और कुशिक्षा को दुरुस्त किया जाये. लेकिन समाज में आमूल परिवर्तन हुए बिना क्या भ्रष्टाचार मिट जाएगा या कम हो जायेगा?  मंहगाई और बेरोजगारी मिट जायेगी या कम हो जायेगी? शिक्षा में बुनियादी परिवर्तन हो जायेगा? नहीं. यह संभव नहीं है, जब तक कि सारे समाज में आमूल परिवर्तन न हो. इन चार मांगों के उत्तर में समाज की सारी समस्याओं का उत्तर है. यह सम्पूर्ण क्रांति है मित्रो.’  फिर उन्होंने सम्पूर्ण क्रांति के मुख्य आयाम भी बताये- सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, वैचारिक, शैक्षणिक और नैतिक क्रांति. साथ में यह भी कहा कि डॉ लोहिया ने जिस ‘सप्त क्रांति’ की बात कही थी, यह सम्पूर्ण क्रांति भी लगभग वही है.
अब इसमें लोहिया के नर-नारी समता को जोड़ दें तो बदलाव का आयाम और स्वरूप लगभग स्पष्ट हो जाता है. और जेपी बीच बीच में यह तो कहते ही थे कि क्रांति का कोई ब्ल्यू प्रिंट नहीं होता, हर क्रांति अपना स्वरूप और तरीका खुद तय करती है. हां, यह निर्विवाद था और है कि जेपी की और अब हमारी कल्पना की सम्पूर्ण क्रांति शांतिमय होगी. बिहार आंदोलन के इस नारे में भी यह स्पष्ट है- हमला चाहे जैसा होगा, हाथ हमारा नहीं उठेगा.

आंदोलन आगे बढ़ता और फैलता गया. सरकार आंदोलन को बलपूर्वक दबाने, कमजोर करने के हर संभव प्रयास करती रही. इसी क्रम में चार नवम्बर ’74  को पटना में जेपी पर लाठी तक चली. उस समय की सत्ता सचमुच बौरा गयी थी.
प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने कहा कि एक निर्वाचित विधानसभा और सरकार को भंग करने की मांग लोकतंत्र विरोधी है, जेपी जिसका समर्थन कर रहे हैं. जेपी ने इस चुनौती को स्वीकार कर लिया, कहा- ठीक है, हम चुनाव में ही दिखायेंगे कि जनता किसके साथ है.  

जाहिर है, उसके वाद आंदोलन पर  राजनीतिक रंग भी कुछ ज्यादा ही हावी हो गया. 12 जून ’75 को इलाहबाद हाईकोर्ट द्वारा इंदिरा गांधी के निर्वाचन को रद्द करने के फैसले के बाद तो देश का वातावरण ही बदल गया. निश्चय ही आंदोलन के दबाव और देश में फैलते उसके प्रभाव के कारण ही इंदिरा गांधी पर प्रधानमंत्री पद से इस्तीफ़ा देने का ऐसा दबाव पड़ा कि उन्होंने 25 जून की रात देश में इमरजेंसी लगा दी. जेपी सहित विपक्ष के लगभग तमाम नेता गिरफ्तार हो गए. उसके बाद जो हुआ, सब इतिहास में दर्ज है. लेकिन बाद में शिद्दत से महसूस हुआ कि यदि जेपी की इच्छा और उनके निर्देशों के अनुरूप हम गांवों से और गहरे जुड़ सके होते, 'जनता सरकार' का गठन कर सके होते तो इमरजेंसी में भी वैसी दहशत और खामोशी नहीं दिखती, जो दिखी. 

सत्ता बदली, निजाम नहीं बदला
1977 में केंद्र, फिर अनेक राज्यों में सत्ता तो बदली, फिर भी बहुत कुछ नहीं बदला. कम से कम जेपी (और हमारी) की कल्पना के अनुरूप तो नहीं ही बदला. तब से अब तक देश- दुनिया में बहुत बदलाव हो चुका है, लेकिन इसे सकारात्मक नहीं कह सकते. आज तो देश और भी निराशाजनक दौर से गुजर रहा है. बिना घोषणा के तानाशाही के लक्षण दिखने लगे हैं.

आज बहुतों को लग सकता है कि आंदोलन अंततः निष्प्रभावी और विफल साबित हुआ. लेकिन उस आंदोलन से निकली विभिन्न धाराओं ने भारतीय राजनीति की दशा दिशा को गहरे प्रभावित किया, इससे कोई इनकार नहीं कर सकता. उस आंदोलन से युवाओं की शक्ति स्थापित हुई. लोकतंत्र मजबूत हुआ. दोबारा इमरजेंसी लगने की आशंका लगभग निरस्त हुई. मानवाधिकार को मान्यता मिली. उस आंदोलन से निकले समूहों ने देश भर में जनता के सवालों को उठाने, उन्हें संगठित करने का काम जारी रखा. जल- जंगल-जमीन पर समाज के अधिकार और नर-नारी समता के सवाल को राष्ट्रीय महत्व का मुद्दा बनाया.
जेपी द्वारा एक जनवरी 1975 में गठित युवा संगठन 'छात्र-युवा संघर्ष वाहिनी' ने जमीनी बदलाव और शांतिमय वर्ग संघर्ष के सफल प्रयोग किये. 1978 में बोधगया मठ के अवैध कब्जे में पड़ी करीब दस हजार एकड़ जमीन की मुक्ति के लिए स्थानीय मजदूरों व किसानों को संगठित किया. दो वर्ष के अंदर मठ की आर्थिक और सामाजिक ताकत ध्वस्त हो गयी. सरकार ने मुक्त जमीन को भूमिहीनों के बीच वितरित किया. उस वितरण में जमीन का स्वामित्व महिलाओं को भी मिले, यह शर्त रखी गयी. प्रशासन ने अड़ंगा लगाने का प्रयास किया. फिर भी अनेक गांवों में महिलाओं के नाम जमीन का कागज बना. भारत में संभवतः ऐसा पहली बार हुआ.
बिहार में  जमींदारी की तरह गंगा पर जारी 'पानीदारी' के खिलाफ मछुआरों को संगठित कर 'गंगा मुक्ति आंदोलन' चलाया, जो सफल भी हुआ.

कहीं ठहर गया वह आंदोलन
अतीत की उपलब्धियों के बावजूद
मौजूदा सच कुछ मायूस करने वाला है. यह बताता है कि 'संपूर्ण क्रांति' का आंदोलन कहीं ठहर गया. अधूरा रह गया है. आज का सच और विडंबना यह है कि जो राजनीतिक समूह अभी देश की सत्ता और राजनीति पर प्रभावी है, वह भी खुद को जेपी और उस आंदोलन का वारिस होने का दावा करता है. मगर वह उस आंदोलन के मूल्यों के उलट एक संकीर्ण हिंदुत्व के विचार से लैस है और येन केन प्रकारेण उसे देश पर थोपना चाहता है. लोकतंत्र के नाम पर वह असहमति और सवाल पूछने के अधिकार को नकारता है. जिस लोकतंत्र और संवैधानिक मूल्यों की पुनर्स्थापना उस आंदोलन का एक प्रमुख लक्ष्य था, उनमें इनकी निष्ठा नहीं है, यह स्पष्ट हो गया है. लोकतंत्र के रास्ते तानाशाही आने की आहट मिलने लगी है. यदि वे अपनी मंशा पूरी करने में सफल हो गये, तो यह उस आंदोलन की बहुत बड़ी पराजय होगी. इससे उसका नकारात्मक होना भी सिद्ध होगा. ऐसा न हो, यह दायित्व उन लोगों पर है, जो खुद को ‘सम्पूर्ण क्रांति’ धारा का असली वारिस मानते हैं, जो इस संकीर्णता और धर्मोन्माद की राजनीति को गलत मानते हैं, जो इस देश को विषमता और अन्याय से मुक्त, समानता, बंधुत्व और लोकतांत्रिक मूल्यों पर आधारित लोकतंत्रात्मक देश बनाना चाहते हैं. आज यदि हम ऐसा करने का संकल्प ले सकें, तभी ‘पांच जून’ को याद करना सार्थक होगा. 
हमारा मकसद एक आदर्श समाज का निर्माण करना रहा है, तो जाहिर है कि हम बेहतर इंसान बनाना चाहते हैं. भौतिक सुविधा से आगे वह मानसिक रूप से मानव मात्र को समान मानने वाला इंसान होगा. हम हर तरह की विषमता और भेदभाव को गलत मानते हैं. मगर समता के साथ न्याय भी आवश्यक है. समता में  स्वतंत्रता और बंधुत्व अंतर्निहित है. उसके बिना लोकतंत्र भी अधूरा रहेगा.  लेकिन आज जिस तरह धर्म और इतिहास की संकीर्ण व मनमानी व्याख्या हो रही है, फिलहाल इस कारण समाज में जो उन्माद फैल रहा है, वह बड़ी चुनौती है. इससे कतरा कर समग्र बदलाव की चर्चा भी बेमानी होगी. हमारी एक बड़ी कमी या असफलता यह रही कि युवा पीढ़ी को हम अपेक्षित संख्या में जोड़ नहीं सके, संपूर्ण क्रांति के विचार उन तक पहुंचा नहीं सके. फिर भी आशावादी होने के नाते उम्मीद करना चाहता हूं कि भटकाव का यह दौर जल्द खत्म होगा. और हमारा समाज और देश गांधी, डॉ आंबेडकर और जेपी- लोहिया जैसे नायकों के दिखाये रास्ते पर चलेगा; अपना समतामूलक, बहुलतावादी स्वरूप कायम रखते हुए विकसित और समृद्ध होगा. आमीन! 
श्रीनिवास
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इसे लिखने तक  संसदीय चुनाव के नतीजे नहीं आये हैं. हालांकि देश के निकट भविष्य की संभावनाओं पर इन नतीजों का व्यापक प्रभाव पड़ना तय है. मगर लेख पांच जून पर केंद्रित है, उसी दिन प्रकाशित और प्रसारित होना है, इसलिए नतीजों का इंतजार करना मुमकिन नहीं था.

लेख की पृष्ठभूमि : पिछले एक वर्ष से प्रत्येक माह की पांच तारीख को  'संपूर्ण क्रांति व्याख्यानमाला' के तहत ऑनलाइन चर्चा चलती रही. उसमें देश भर के संघर्ष वाहिनी से जुड़े दो सौ से अधिक साथियों की भागीदारी रही. हर दिन तीन साथी बोलते थे. सबों से अपनी बात लिख डालने का अनुरोध किया गया. बहुतों ने लिखा भी. इस मौके पर उनमें से तीस साथियों के लेखों का संकलन 'संपूर्ण क्रांति के 50 वर्ष : मूल्य, लक्ष्य और मुक्त चिंतन' शीर्षक से प्रकाशित हो रहा है. इसी पांच-छह जून को वर्धा (महाराष्ट्र) स्थित 'सेवाग्राम आश्रम' में हो रहे संपूर्ण क्रांति धारा के साथियों के समागम के अवसर पर उस संकलन का लोकार्पण होगा

- श्रीनिवास

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