बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता और अल्पसंख्यक साम्प्रदायिकता में एक रोचक व महत्वपूर्ण अंतर होता है. यह कि बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता पर कभी राष्ट्र विरोधी होने का आरोप नहीं लगता, जबकि अल्पसंख्यक साम्प्रदायिकता पर आसानी से यह आरोप लग जाता है / लग सकता है, और एक हद तक उसमें यह गुंजाइश भी रहती है.
प्रज्ञा ठाकुर पर आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त होने का आरोप है. अभी जमानत पर हैं. फिर भी भाजपा ने उन्हें भोपाल संसदीय क्षेत्र से अपना प्रत्याशी बना दिया. और भाजपा उन्हें देशभक्त बता रही है. कल्पना कीजिये कि ऐसे ही जमानत पर रिहा आतंकवाद का एक मुस्लिम आरोपी किसी अन्य दल से चुनाव लड़ रहा होता, तो भाजपा और उसके समर्थकों की क्या प्रतिक्रिया होती?
यानी कोई आदमी (या महिला) कितना भी धर्मांध हो, दंगों में शामिल होने का आरोपी हो, यदि वह हिंदू है, तो देशद्रोही नहीं हो सकता. मगर मुसलमान हो तो? उसे अपने देशभक्त होने का प्रमाण देना होगा. कोर्ट द्वारा बेगुनाह बताये जाने तक तो उस पर देश के दुश्मन का ठप्पा लगा ही रहेगा; बहुत मुमकिन है कि अदालत का कोई फैसला भी उस दाग को न मिटा पाये.
भाजपा इस अंतर को समझती है और इसका बखूबी इस्तेमाल भी खरती है. इसीलिए सांप्रदायिक कहने पर भाजपा के नेता कड़े शब्दों में प्रतिक्रिया भले व्यक्त करें, अन्दर से उन्हें इससे कोई परेशानी नहीं होती, कोई कष्ट नहीं होता. शायद खुशी ही होती हो. इसलिए कि कम्युमल होना उसकी पहचान है, उसका यूएसपी है. कम्युमल होना मतलब कट्टर हिंदूवादी होना, आक्रामक-संकीर्ण हिंदूवादी होना. संघ के निरंतर प्रचार और प्रयास से ‘गर्व से कहो हम हिन्दू हैं’ के नारे लगाते और इस देश के वास्तविक स्वामी होने के एहसास से लबरेज हिन्दू ऐसी पार्टी को क्यों नहीं पसंद करेगा. तो कम्युनल होने का ठप्पा भाजपा के लिए उपयोगी है.
एक और ताजा उदहारण देखें. कुछ दिन पहले भाजपा के ऑफिसियल ट्विटर हैंडल पर भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह का एक बयान जारी हुआ, जिसमें यह घोषणा है कि भाजपा पूरे देश में एनआरसी लागू करेगी; और देश से एक एक घुसपैठिये को निकाल बाहर करेगी- सिवाय हिंदू, बौद्ध और सिख के. (@BJP4India-‘We will ensure implementation of NRC in the entire country. We will remove every single infiltrator from the country exept Buddha, Hindus and Sikhs. Shri @Amit Shah#NaMoForNewIndia.)
पहली नजर में यह घोषणा भी निर्दोष और देश हित में लगती है. लेकिन क्या यह नहीं पूछा जाना चाहिए कि इस सूची में मुसलमान और ईसाई क्यों नहीं हैं? वे जवाब देंगे कि भारतीय मुसलमानों के लिए तो एक अलग देश ही बन गया. अब उस देश में उन्हें सताये जाने की गुंजाइश नहीं है; और है भी तो भारत उनकी चिंता क्यों करे? मगर आप तो ‘अखंड भारत’ की, उस स्वप्न को पुनः साकार करने की बात करनेवाले हैं. तो क्या उस ‘अखंड भारत’ में कोई मुसलिम या ईसाई नहीं होगा? फिर आप तो यह भी कहते हैं कि ’47 में हुआ विभाजन नकली थी, नेहरू/कांग्रेस की गलतियों का नतीजा था. लेकिन उस विभाजन के महज 24 वर्ष बाद ही तो धर्म/इस्लाम के नाम पर बना पकिस्तान भाषा और संस्कृति के कारण टूट गया. पाकिस्तान की (मुसलिम) सेना ने अपने ही हम वतन मुसलिमों पर बेइंतहा जुल्म किये. गनीमत कि बांग्लादेश बन गये और वहां की सरकार अपने नागरिकों को वापस लेने को तैयार हो गयी. कल्पना करें कि पाकिस्तान नहीं टूटता, यानी बांग्लादेश वजूद में नहीं आया होता. तो हम पाकिस्तानी सेना के सताये उन शरणार्थियों के साथ क्या सलूक करते. उनके धर्म के आधार पर फैसला करते?
ये ही दावा करते हैं कि पाकिस्तान के बलूचिस्तान में विद्रोह की स्थिति है. वे विद्रोही क्या मुसलमान ही नहीं हैं? आप मानते हैं कि पाकिस्तान के कब्जेवाले कश्मीर में भी भारी असंतोष है. क्या वे असंतुष्ट मुसलमान नहीं हैं? अब यदि वहां उपद्रव और विद्रोह हो जाये; और सरकारी दमन के कारः वहां के विद्रोही मुसलमान भारत आना चाहेंगे, तो क्या हम उन्हें इसलिए नहीं अपनाएंगे कि वे हिन्दू नहीं हैं? ऐसी ही स्थिति बलूचिस्तान और सिंध में हो जाये तो?
और पाकिस्तान या बांग्लादेश के ईसाइयों को यदि लाचारी में पलायन करना पड़े, तो वे कहां जायेंगे? वे सब तो भारतीय मूल के हैं. धर्मांतरण के पहले उनके पुरखे हिंदू ही थे. क्या उनसे कहेंगे कि आप ईंग्लैंड चले जाइये, वही है आपका देश, कि भारत तो हिंदुओं का देश है!
जाहिर है कि एनआरसी और उसके प्रावधान भी भाजपा की संकीर्ण हिंदूवादी नीति के अनुकूल हैं. यह क्रूर व संकीर्ण बहुसंख्यकवाद है. मगर आप उसे राष्ट्रविरोधी नहीं कह सकते. कहेंगे तो खुद राष्ट्रविरोधी हो जायेंगे. यह है दो तरह की साम्प्रदायिकता में अंतर. ये लोग भारत की जिस 'वसुधैव कुटुंबकम' की महान परंपरा की बात करते हैं, उसे खुद किस हद तक मानते हैं, और इनका 'राष्ट्रवाद' कितना संकीर्ण है, इसके लिए किसी और प्रमाण की जरूरत है?