300 कोरवा परिवारों में से एक भी नहीं, जो सुशीला को साथ दे
खेत-खलिहान, गांव-समाज सबकुछ से हाथ धो चुकी है सुशीला व उसका परिवार
अपनी पीड़ा बताते हुए सुशीला न तो हिचकती है और न ही उदासी ही ओढ़ती है। उसकी आंखें दूर कोने में टिकी है, जो उसे हिम्मत दे रही है। बिना रूके, सबकुछ एक ही सांस में कह देने को आतुर। उसकी शिकायत बस अपने ही बिरादरी के लोगों से है, जो उत्पीड़क के लिए कुल्हाड़ी का बेंट बने हुए हैं। स्नातक तक पढ़ाई पूरी कर चुकी सुशीला कहती है कि हमारा तो सबकुछ छीन लिया गया। पेट भरने के काम आने वाला एकलौता खेत, अपना समाज, अपना निजी परिवार, अपना गांव, गांव की दुकान, सड़के और गलियां तक। नहीं छिन पाये तो सिर्फ प्रकृति का साथ, हवा-पानी और पेड़ के छांव।
गोबरदहा में गड़बड़झाला है, भाई!